चुपचाप चला गया पांच अप्रैल
(हर्षवर्धन त्रिपाठी)
नई दिल्ली (साई)। पूरा का पूरा दिन पांच अप्रैल के रूप में बीत गया लेकिन क्या आपको याद आया कि इस दिन को हमें क्यों याद रखना चाहिए? इतिहास खंगालने में पांच अप्रैल को न जाने क्या क्या हाथ लगेगा लेकिन अतीत के लंबे इतिहास में जाने की जरूरत है। जरा सालभर पीछे जाइये और याद करिए कि पांच अप्रैल को क्या हुआ था? खुद अन्ना हजारे को याद रहा और उन्होंने अपने गांव में लोकसभा चुनाव तक लोकपाल आंदोलन चलाने की घोषणा की, लेकिन अन्ना को छोड़ दें तो किसे याद रहा कि सालभर पहले जो पांच अप्रैल भ्रष्टाचार के खिलाफ जनक्रांति का आगाज कर रहा था, एक साल बाद ही वह खामोश खड़ा नजर आया.
5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास की कुछ उसी तरह की अहम तारीख है जैसे कि 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950। आजादी या गणतंत्र की तारीख से 5 अप्रैल 2011 की तारीख थोड़ा अलग मायने की है, अलग महत्व की है। आजादी और गणतंत्र की तारीखें ऐसी तारीखें हैं जिस दिन देश को अपनी आजादी और अपने गणतंत्र के होने का अहसास मिला। और, वो अहसास हमारा गर्व बना। क्योंकि, 15 अगस्त 1947 के बाद कम से कम सीधे तौर पर किसी विदेशी का हम पर शासन नहीं रहा और 26 जनवरी 1950 के बाद हमने खुद के बनाए संविधान के लिहाज से एक देश के तौर पर खुद को चलाना सीखा। 5 अप्रैल 2011 का भी महत्व अगर देखा जाए तो, इन दोनों ही तारीखों से कुछ कम नहीं है। लेकिन, 5 अप्रैल 2011 की तारीख अलग इस मायने में है कि इस दिन जो, उम्मीद की किरण दिखी थी वो, अब तक अहसास में नहीं बदल पाई है।
5 अप्रैल 2011 को, जो उम्मीद की किरण थी वो, थी भ्रष्टाचार मुक्त भारत की। 5 अप्रैल 2011 को जंतर-मंतर पर किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठे तो, अंदाजा ही नहीं था कि इस नए गांधी ने भारत की बेहद कमजोर नस पर इतने सलीके से हाथ धर दिया है। नब्ज पकड़ में आई तो, भ्रष्टाचार की बीमारी से पीड़ित हर भारतीय प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इस डॉक्टर के दवा के परचे की लाइन में खड़ा हो गया। लेकिन, भ्रष्टाचार की बीमारी दूर करने का दावा करने वाले डॉक्टर अन्ना हजारे की मुश्किल ये थी कि खुद के लिए भ्रष्टाचार की बीमारी का पक्का इलाज चाहने वाले हिंदुस्तानी दूसरे हिंदुस्तानियों के लिए खुद ही भ्रष्टाचार की बीमारी बढ़ाने का हर संभव प्रयास कर रहा था। देश में भ्रष्टाचार की बीमारी से लड़ते दिख रहे अकेले इस सीनियर सर्जन के साथ कुछ जूनियर सर्जनों की टीम भी बीमार भ्रष्ट भारतीयों के लिए उम्मीद की किरण दिखी। देश जागा। भ्रष्टाचार की बीमारी में बेसुधी की नींद ही कुछ ऐसी गहरी आई थी।
विकीपीडिया पर अन्ना हजारे का पृष्ठ बताता है कि वो, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाले महारथी हैं। पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे प्रतिष्ठित भारतीय नागरिक सम्मान पा चुके इस शख्स की ढेरों उपलब्धियां भी विकीपीडिया के इस पेज पर मिलेंगी। लेकिन, 5 अप्रैल 2012 को सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि क्या 5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास में 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950 जैसी निर्णायक तारीख बन पाएगी। कुछ अतिभ्रष्टाचारियों को छोड़कर, पूरे देश की तरह हम भी उम्मीद से हैं। क्योंकि, थोड़े बहुत भ्रष्टाचारी तो हम सब हैं। लेकिन, न्यूनतम भ्रष्टाचारी होने के कारण हम जैसे लोग रिपोर्टिंग करते एक्टिविस्ट की भूमिका में आ गए थे। ये अन्ना के आंदोलन की ताकत थी।
लेकिन, बीते वित्तीय वर्ष के आखिरी दिन इत्तेफाक से हम इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के दफ्तर में काफी समय रहे। और, जमीन की रजिस्ट्री की पीड़ादायी प्रक्रिया और अन्ना को चुनौती देते बाबुओं की फौज से जूझते आम आदमी को देखकर मन में फिर सवाल खड़ा हुआ कि 5 अप्रैल 2011 आखिर निर्णायक तारीख कैसे बन पाएगी। यही वो, आम आदमी था जो, जंतर-मंतर, रामलीला मैदान से लेकर अपने शहर के नुक्कड़, चौराहे तक अन्ना के साथ गला फाड़कर, मैं अन्ना हूं की टोपी लगाकर खड़ा था। वही आम आदमी अपनी खरीदी जमीन की रजिस्ट्री के लिए बाबुओं के सामने रिरिया रहा था। बाबुओं की कृपादृष्टि भर से वो, प्रसन्ना हो रहा था। आजादी के 65 साल बाद भी रजिस्ट्री का वही घटिया तरीका। वही स्टैंप पेपर पर अंगूठे के निशान, हस्ताक्षर से लेकर एक बेहद घटिया पेपर की रसीद से रजिस्ट्री हो जाने की संतुष्टि।
31 मार्च 2011 को एडीए यानी इलाहाबाद विकास प्राधिकरण की लिफ्ट तेजी से का सातवें, आठवें तल पर ही जा रही थी। सातवें तल पर रजिस्ट्री के डीलिंग क्लर्क के पावन दर्शन होने थे। और, आठवें तल पर एक 25-30 लोगों की क्षमता वाले कमरे में एक साथ 100-150 लोग कुछ छूट की उम्मीद में आखिरी रजिस्ट्री कराने के लिए धंसे पड़े थे। हालांकि, सातवें तल पर डीलिंग क्लर्क के कक्ष के बाहर ही एक बड़ा बोर्ड लगा था जो, साफ तौर पर इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के अन्नामय होने की बात सार्वजनिक तौर पर कह रहा था। उस सार्वजनिक सूचना पट्ट पर साफ लिखा था कि प्राधिकरण के किसी भी कार्य के लिए कोई भी अधिकारी, कर्मचारी सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्ध है। लेकिन, इसी बोर्ड पर अन्ना के साथ खड़े अन्ना के घोर विरोधी आम आदमी, कर्मचारी में से किसी ने सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्धता को लेने की वचनबद्धता में बदलने की कोशिश की थी। वैसे, कोई इस सूचना पट्ट पर नजर भी नहीं डालता क्योंकि, इससे तो, बनी बात बिगड़ जाएगी। और, अंदर पहुंचते ही प्राधिकरण के अधिकारियों, कर्मचारियों की ईमानदारी का नमूना मिलना शुरू हो ही जाता है।
चढ़ावा डीलिंग क्लर्क से शुरू होकर आखिरी रसीद काटने वाले चपरासी बाबू तक चढ़ रहा था। कोई सरकारी खजाने में जमा होने वाली जायज राशि भर देता तो, रजिस्ट्री के लिए बैठी बाबुओं की फौज में से किसी की करकराती, डराती आवाज सुनाई दे जाती। खर्चवा देबा कि अइसेन रजिस्ट्री होइ जाई। लाखन क जमीन लेब्या औ दुई चार सौ देए म आफत होइ जाथ। किसी तरह जिसकी रजिस्ट्री हो जा रही थी। वो, जैसे अपने सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के दर्शन जैसा अहसास पा रहा था। ऐसे ही अहसास अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अहसास की सबसे बड़ी बाधा हैं। 5 अप्रैल 2011 ने एक उम्मीद तो, जगाई है लेकिन, ये उम्मीद भ्रष्टाचार मुक्त भारत के संपूर्ण या फिर बहुमत के अहसास में कब बदलेगी ये बता पाना तो, शायद ही किसी के वश का होगा।
(साभार: विस्फोट डॉट काम)
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