हरदिल अजीज आम
भारतीय की छवि वाले थे शोले के इमाम साहब
(दीपक अग्रवाल)
मुंबई (साई)। अवतार
किशन हंगल, यानी ए.
के. हंगल को रूपहले पर्दे पर देखकर लोगों को अहसास होता था कि यह सूरत उनके आसपास
की ही है। हंगल में आम आदमी अपने आप को पाता था। निम्न मध्य वर्गीय परिवार के
दृश्यों में जब हंगल साहेब पायजामा या धोती पहनकर घर के अंदर होते तो लगता मानो
पड़ोसी का ही घर हो। एक छाता टांगे आफिस के बड़े बाबू के रोल में वे बेहद जंचते।
हंगल के पास कभी
स्टार का रुतबा नहीं रहा। वह हीरो या विलेन न होकर एक चरित्र अभिनेता थे। 55 की उम्र में फिल्म
लाइन में एंट्री मारने वाले हंगल को उनकी उम्र की वजह से ज्यादातर बड़े बुजुर्गों
के ही किरदार निभाने को मिले। पर्दे पर पिता, दादा, चाचा, दोस्त नौकर के तमाम किरदारों में मजबूर और
निरीह दिखने वाले हंगल की असल जिंदगी भी आखिरी वक्त में कुछ वैसी ही हो चली थी।
उन्होंने बॉलिवुड में नाम तो बहुत कमाया लेकिन पैसा नहीं कमा सके। अपनी रोजमर्रा
की जरूरतें पूरी करने का संघर्ष करते हंगल इस दुनिया से 95 की उम्र में रुखसत
हो लिए। बॉलिवुड के इस शोर-शराबे और चमक दमक में हंगल के गुजर जाने का सन्नाटा
कहीं दब गया है, शायद तभी
उनके आखिरी सफर पर बॉलिवुड के बड़े नामों की मौजूदगी नदारद थी।
पाकिस्तान के पंजाब
प्रांत के सियालकोट के एक कश्मीरी पंडित परिवार में 1917 में जन्मे ए. के.
हंगल ऐक्टर बनने से पहले एक बेहतरीन टेलर थे। अपनी आत्मकथा ‘लाइफ ऐंड टाइम्स ऑफ
ए. के. हंगल‘ में
उन्होंने बताया है कि मेरे पिता के एक दोस्त ने मुझे दर्जी बनने का सुझाव दिया था।
खास बात ये है कि शुरू में हंगल को बटन टांकना भी नहीं आता था। बाद में नवंबर 1949 में वह अपनी पत्नी
सहित मुंबई यानी भारत पहुंचे। नरीमन रोड की एक टेलरिंग की दुकान में नौकरी भी की।
हंगल साहब की पहली
फिल्म थी, बासु
भट्टाचार्य निर्देशित 1966 में बनी फिल्म तीसरी कसम, रंगमंच पर हंगल के
एक्टिंग से प्रभावित होकर मशहूर डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें अपनी फिल्मों
में मौका दिया। ‘शोले‘ में अंधे इमाम साहब
का किरदार और उनके डायलॉग इतना सन्नाटा क्यों है भाई को कौन भूल सकता है। शौकीन के
रंगमिजाज बुजुर्ग इंदरसेन उर्फ एंडरसन के रोल में हंगल बेमिसाल थे। अवतार, शौकीन, गुड्डी, नमक हराम, बावर्ची, अर्जुन, शौकीन, 7 हिंदुस्तानी में
अपनी एक्टिंग से अलग पहचान बनाने वाले हंगल ने 45 साल लंबे करियर
में 200 से अधिक
फिल्मों में काम किया। हाल के सालों में हंगल साहब लगान, ये दिल मांगे मोर
जैसी फिल्मों में दिखे। अमोल पालेकर निर्देशित पहेली (2005) हंगल साहब की आखिरी
फिल्म थी। साल 2006 में हंगल
को पद्म विभूषण दिया गया।
हंगल ने 74 साल के बेटे विजय
ने मीडिया को बताया था कि किडनी और अस्थमा की बीमारियों से जूझ रहे हंगल की दवाएं
बहुत महंगी थीं। उनके अस्पताल और अटेंडेंट का खर्च भी इतना ज्यादा था कि जिसे मैं
अपनी 15 हजार
रुपये महीने की पगार में पूरा नहीं कर सकता।
पिछले साल ए. के.
हंगल एक फैशन शो में दिखे जहां रैंप पर वह शो स्टॉपर की भूमिका में पहुंचे। शोले
के बैकग्राउंड म्यूजिक पर वील चेयर पर बैठे हंगल ने शो के बाद आयोजकों के काम को
बहुत सराहा लेकिन इस अवस्था में हंगल को रैंप पर लाने के लिए आयोजकों को काफी
आलोचना झेलनी पड़ी। बाद में डिजाइनर रियाज गंजी ने सफाई दी कि यह शो आर्थिक
दुश्वारियों से जूझ रहे हंगल की मदद के लिए फंड रेजिंग का एक जरिया था।
कहा जाता है कि
महात्मा गांधी भारत में जो अहिंसक आंदोलन चला रहे थे, सरहद पार उसकी
अगुवाई हंगल कर रहे थे। उन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी भाग लिया जिसकी
वजह से उन्हें अपनी पत्नी मनोरमा के साथ जेल जाना पड़ा। हंगल ने ब्रिटिश टीवी सीरीज
लॉर्ड माउंटबेटनरू द लास्ट वायसराय में सरदार पटेल के किरदार को निभाया। हाल में
कलर्स चौनल पर शुरू हुए सीरियल मधुबाला में भी वह एक छोटे से सीन में एक्टिंग करते
नजर आए।
एक समय थियेटर की
दुनिया के बेताज बादशाह ए के हंगल को फिल्मों में अभिनय करना कुछ खास पसंद नहीं था, लेकिन धीरे धीरे
रूपहले पर्दे की यह दिलफरेब दुनिया उन्हें इतनी रास आई कि वह बहुत सी फिल्मों में
कभी पिता, कभी दादा
तो कभी नौकर का किरदार निभाते नजर आए।
रंगमंच से जुड़े
होने के कारण हंगल के अभिनय में एक सहजता थी, जिसकी वजह से वह हर किरदार में ढल जाया करते
थे। शोले फिल्म के एक डायलॉग ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई’ से हंगल को नई पीढ़ी
भी बखूबी पहचानती है। हालांकि उन्होंने नयी पुरानी दर्जनों फिल्मों में छोटे बड़े
किरदार निभाए।
फिल्मी दुनिया के
इस बुजुर्ग अभिनेता को 1993 में राजनीतिक विवाद का कारण भी बनना पड़ा। दरअसल उन्होंने
अपने जन्मस्थल की यात्रा करने के लिए पाकिस्तान का वीजा मांगा। उन्हें मुंबई स्थित
पाकिस्तानी वाणिज्य दूतावास से पाकिस्तानी दिवस समारोहों में भाग लेने का निमंत्रण
मिला और उन्होंने इसमें भाग लेकर शिव सेना के गुस्से को निमंत्रण दे डाला।
शिवसेना प्रमुख ने
उन्हें देशद्रोही तक कह डाला। इनमें पुतले फूंके गए और इनकी फिल्मों के बहिष्कार
की बात कही गई। हालात ऐसे बने कि फिल्मों से उनके दृश्य काट डाले गए। दो वर्ष बाद
वह अमिताभ बच्चन की कंपनी द्वारा बनाई गई फिल्म ‘तेरे मेरे सपने’ और आमिर खान की ‘लगान’ से दोबारा रूपहले
पर्दे पर उतरे। शाहरूख खान की 2005 में आई फिल्म ‘पहेली’ उनकी अंतिम फिल्म
थी। उन्हें वर्ष 2006 में हिंदी
सिनेमा में उनके योगदान के लिए पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
हालांकि अंतिम
दिनों में हंगल ने मुफलिसी में दिन गुजारे और उनके पुत्र विजय ने उनके इलाज के लिए
मदद मांगी। अमिताभ बच्चन, विपुल शाह, मिथुन चक्रवर्ती, आमिर खान और सलमान
खान जैसी बॉलीवुड की कई हस्तियों ने उनके इलाज के योगदान दिया। करीब सात वर्ष के
अंतराल के बाद उन्होंने टेलीविजन धारावाहिक ‘मधुबाला’ के लिए एक बार फिर
कैमरे का सामना किया, जो उनके जीवन की अंतिम कड़ी साबित हुआ।
हंगल के बेटे विजय
ने कहा, ‘‘यह बहुत
बडी क्षति है। मैं उनके निधन से दुखी हूं। वह अपने काम और जिंदगी को लेकर बहुत खुश
और जिंदादिल थे। मैं अभी इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता।’’ फिल्मों में दादा, पिता, चाचा जैसे अनेक
चरित्र किरदार अदा करने वाले हंगल को अंतिम विदाई देने राकेश बेदी, रजा मुराद, अवतार गिल, इला अरुण और कुछ
अन्य लोग पहुंचे।
रजा मुराद ने कहा, ‘‘उन्होंने सभी
सुपरस्टार के साथ काम किया लेकिन दुख की बात है कि इंडस्टरी का कोई बडा कलाकार आज
यहां नहीं आया।’’ इला अरुण
ने कहा, ‘‘वह राजा की
तरह रहे। वह बहुत सक्रिय रहे। जब उनके पास काम और पैसा नहीं था तब भी उन्होंने हार
नहीं मानी। वह न केवल अभिनेता थे बल्कि स्वतंत्रता सेनानी भी थे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें