भाषा सिर्फ शब्दकोष
नहीं
(दिव्या शर्मा)
नई दिल्ली (साई)।
कोई भी भाषा सिर्फ शब्दकोष नहीं है. भाषा हमारी भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे
मज़बूत जरिया होता है. हिंदी को सवैधानिक
तौर पर भारत की राजभाषा घोषित किया गया है, जिसे देश की जनता
राष्ट्रभाषा का सम्मान देती है. भारत सहित पुरे विश्व में करीब ६० करोड़ लोग हिंदी बोलते और लिखते है, जिनमे फिजी, मोरिशियस, गयाना, नेपाल जैसे देश
शामिल है. भाषा विशेषज्ञों के अनुसार भविष्य में अन्तराष्ट्रीय महत्व मिलने वाली
चाँद भाषाओँ में हिंदी प्रमुख रहेगी. पौराणिक भाषा संस्कृत से निकले शब्द हिंदी को
१८ वीं शताब्दी में साहित्यिक भाषा का गौरव भी प्राप्त हो चूका है. सबसे सरल, लचीली और व्यवस्थित
भाषा मानी जाने वाली हिंदी भाषा को हमारी न सिर्फ राष्ट्रभाषा बल्कि संपर्क भाषा
भी बनाया गया. इसके बावजूद यह विडम्बना ही है की आज हमारी राष्ट्रभाषा का अस्तित्व
खतरे में है. दिमागी तौर पर हम आज भी गुलाम ही है, शायद इसीलिए हिंदी
भाषी राष्ट्र में अंग्रेजी बोलने वालों को
ज्यादा सम्मान प्राप्त है. औपचारिक तौर पर संपर्क भाषा कहे जाने वाली हिंदी में
संपर्क करने पर आज हमारे ही देश में हीन द्रष्टि का सामना करना पड़ता है. अपना
महत्व और काबिलियत साबित करने के लिए भी आज
अंग्रेजी का सहारा लेने को लोग मजबूर है.
जितनी हिंदी उपयोग
की जा रही है, वह भी
अशुद्ध या फिर अंग्रेजी आदि का मिश्रण ही होती है. पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव
हमेशा से ही हमारे दिमाग पर हावी रहा है, जिसकी आग को मनोरंजक चौनलों और फिल्मों ने
और हवा देने का काम किया है. फिल्मों में लगातार बढती पाश्चात्य संस्कृति और हिंदी का घटता स्तर इसके
लिए सबसे ज़यादा जवाबदार है.
भारत में हिंदी
पत्रकारिता का आरम्भ आज़ादी से पहले कोलकत्ता और लाहोरे जैसे शहरों में हुआ था जो
हिंदी भाषी शेत्र नहीं है, लेकिन तब भी हिंदी का निरादर नहीं हुआ करता था, जो आज की औद्योगिक पत्रकारिता के दौर में हो रहा है. खुद
को बेहतरीन हिंदी न्यूज़ चौनल कहने वाले भी आज राष्ट्रभाषा की दुर्गति करने में
अग्रसर है. अशुद्ध व्याकरण, गलत शब्दों का चयन, यहाँ तक की
स्त्रीलिंग और पुरलिंग का अंतर भी कुछ चौनल भुला चुके है.
पत्रकारिता में हिंदी के लगातार घटते स्तर पर
खेद व्यक्त करते हुए आई. बी. इन. 7 के पुनीत शुक्ला का मानना है कि पढने में रुझान बढाने के अलावा सबसे पहले हमे अपनी मानसिकता बदलने की
ज़रुरत है. टी.आर.पी. में अव्वल आने और खबर
सबसे पहले दिखने की होड़ में भाषा की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. पुनीत का कहना
है की हर खबर को सनसनी बनाकर पेश करने का चलन खत्म करना होगा. हर चौनल एक ही कतार
में दौड़ कर टी.आर.पी. बटोरने में लगा रहता है. उन्होंने कहा की आज देखे तो हर शब्द
के आगे महा जोड़कर दिखाया जा रहा है, जैसे महा-आन्दोलन, महा-बहस, महा-चर्चा आदि, जिनका कोई औचित्य
नहीं है. उन्होंने कहा कि हम हिंदी के महत्व को बढाने के लिए कई प्रयास कर रहे है, जैसे दिग्गज कवियों
ओर साहित्यकारों के द्वारा लिखी पंक्तियों का उपयोग कर रहे है, ताकि देश के युवा
वर्ग को हमारा साहित्य स्मरण करवा सकें, जो आज पूरी तरह अंग्रेजी के गुलाम हो चुके
है. उन्होंने बताया कि हालहि में प्रदर्शित फिल्म श्ज़िन्दगी न मिलेगी दोबाराश् में
सिर्फ अंग्रेजी,
क्लबों ओर शराब में डूबे युवाओं के जो संस्कार दिखाये है, वह केवल फिल्म नहीं है. यह हमारे उभरते समाज की तस्वीर
बन चुकी है.
राष्ट्रभाषा का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है, जिसे एक आशा की
किरण की ज़रुरत है. अगर प्रयास किये जाए तो यह किरण समाज को हिंदी पत्रकारिता के
ज़रिये मिल सकती है. हमे समाज को राष्ट्रभाषा की गुणवत्ता और क्षमता याद दिलानी
होगी. दस हजार मूल शब्दों वाली अंग्रेजी भाषा के सामने अपने आप में ढाई लाख शब्दों
को समेटे हुए हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी की
भव्यता देश भूलता जा रहा है, जो हमारी संस्कृति के लिए भी खतरे की ओर एक
इशारा है.
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