शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

नेटीजन और नेताजन


नेटीजन और नेताजन

संजय तिवारी

असीम असीमानन्द होने से बच गये। महाराष्ट्र सरकार ने उनके ऊपर जो देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया था, वह इतना कमजोर था कि वहां के गृहमंत्री को कहना पड़ा कि सरकार आरोप वापस लेने पर विचार कर रही है। ठीक उसी वक्त हाईकोर्ट ने भी मुंबई पुलिस को तलब कर लिया और पहले ही खाली हाथ खड़ी मुंबई पुलिस ने हाथ झाड़कर रिमाण्ड लेने से मना कर दिया। असीम की रिहाई का रास्ता साफ हो गया और अब वे जिस तरह हाथ हिलाते हुए आर्थर रोड जेल गये थे उसी तरह हाथ हिलाते हुए आर्थर रोड जेल से बाहर आ गये हैं। असीम त्रिवेदी प्रकरण का पटाक्षेप हो गया।
असीम त्रिवेदी के कार्टून भले ही अब देशद्रोही न रहे हों लेकिन क्या सचमुच अब मुक्त अभिव्यक्ति पर कभी कोई सवाल नहीं उठेगा? क्या अब कभी कोई सरकार, कभी कोई पुलिस, कभी कोई अदालत इंसान की मूल प्रवृत्ति के राह में रोड़ा नहीं अटकायेगी? सवाल जितना मुश्किल है, उतना ही पेंचीदा भी।
असीम त्रिवेदी को आपसे थोड़ा ज्यादा जानने का श्रेय इसलिए ले सकता हूं क्योंकि वे मेरे फेसबुक फ्रेण्ड हैं। कब से हैं, पता नहीं। लेकिन इंटरनेट के फेसबुक साम्राज्य में कहीं तो हमारा आमना सामना हुआ और फ्रेंड रिक्वेस्ट का आदान प्रदान हो गया होगा। आनलाइन दुनिया की इस भेंट मुलाकात के लिए बिल्कुल जरूरी नहीं होता है कि आप एक दूसरे को जानते हैं इसलिए ऐसी जान पहचान दोस्ती में बदल जाया करती हैं। यहां नियम कायदे उलटे हैं। यहां पहले दोस्ती है फिर जान पहचान का सिलसिला शुरू होता है। देश में नटखट नेट का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं हैं। कायदे से एक पीढ़ी का भी नहीं। कुल जमा दस सालों की सक्रियता। उसमें भी ब्लाग और सोशल नेटवर्किंग जैसी साइटों का अभ्युदय और उत्थान भी कोई चार पांच साल का खेल तमाशा है। कुल गुणा गणित और सरकारी जोड़ घटाने के बाद भी भारत में 12 करोड़ के आसपास इंटरनेट उपभोक्ता हैं जिसमें सिर्फ 14 करोड़ ब्राडबैण्ड उपभोक्ता हैं। बारह करोड़ का यह आंकड़ा भी इसलिेए दिखाई दे रहा है क्योंकि 59 फीसदी ऐसे उपभोक्ता हैं जो इंटरनेट के लिए मोबाइल डिवाइस का इस्तेमाल करते हैं।
हम एक मोटा अनुमान लगा सकते हैं कि देश में करीब 15 करोड़ लोग इंटरनेट उपभोक्ता हो चले हैं। हम अपनी आबादी देखते हैं तो भले ही ये पंद्रह करोड़ लोग पिद्दी दिखाई पड़ते हों लेकिन इंटरनेट उपभोग और सोशल साइट्स के इस्तेमाल दोनों ही मामलों में देश दुनिया के तीसरे पायदान पर आ खड़ा हुआ है। जिस सोशल नेटवर्किंग के कारण किसी असीम त्रिवेदी से फेसबुक पर फ्रेण्डशिप होती है उस फेसबुक पर भारतीयों की संख्या पांच करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है। इसी तरह एक अनुमान है कि माइक्रोब्लागिंग साइट ट्टिटर पर भारतीयों की संख्या दो करोड़ के पार चली गई है। सोशल साइटों पर विकास की यह पहुंच कोई दशकों में नहीं हुई है। 2006 से पहले न तो फेसबुक का कोई साम्राज्य था और न ही ट्विटर की चिड़िया का कोई घोंसला था। लेकिन पांच छह सालों के अपने विस्तार काल में इन सोशल साइट्स ने इतना विकराल स्वरूप अख्तियार कर लिया कि सरकारों के सुरक्षित किले हिलने लगे।
एक तरफ हमारी सरकार सिर्फ कहती भर नहीं बल्कि उसके लिए प्रयास भी कर रही है कि देश में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो तो दूसरी तरफ पिछले एक साल में कई ऐसी घटनाएं घटी हैं जो सीधे सीधे उन्हीं नेटीजनों पर हमला बोला गया है जो इस संभावित संचार क्रांति के आखिरी उद्येश्य हैं। नेताजनों से नेटीजनों का पहला टकराव हुआ अन्ना आंदोलन के उफान के दौरान। जिस वक्त अन्ना का आंदोलन उफान पर था, सोशल साइटों पर भी नेताओं के खिलाफ गुस्सा तूफान की तरह तबाही मचा रहा था। नेटीजन शोसल नेटवर्किंग साइट को तहरीर स्क्वायर बना देना चाहते थे लेकिन सरकार ने उसे थियामन चौक बना देने का निश्चय कर लिया। इस टकराव का पहला स्वर सुनाई दिया तब जब संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने फेसबुक, ट्विटर और गूगल को बुलावा भेज दिया और फोटोशॉप जनित कुछ ऐसे चित्रों पर आपत्ति दर्ज की जिसमें उनके और उनके नेता सोनिया गांधी का बहुत भद्दे तरीके से मजाक उड़ाया गया था।
असीम के कार्टून भी उसी समय उभरे थे। वे और उनके मित्र आलोक मिलकर एक वेबसाइट चलाते थे जिस पर डाले गये अपने कार्टून को फेसबुक पर भी शेयर करते थे। असीम टीम अन्ना में तशरीफ लाना चाहते थे लेकिन यही अरविन्द केजरीवाल ऐसे ष्चरमपंथियोंष् को टीम अन्ना का सदस्य बनाकर अपनी उर्जा को आग के हवाले करने के लिए तैयार नहीं थे। फिर भी, महज 25 साल के असीम त्रिवेदी क्रांति से कम किसी समझौते के लिए तैयार नहीं थे इसलिए अन्ना के आंदोलनों और अनशनों के सक्रिय भागीदार बने रहे। उनकी क्रांति भावना कितनी पवित्र है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी इसी अगस्त में जब अरविन्द केजरीवाल की पहल पर जंतर पर राजनीतिक दल बनाने का ऐलान किया गया तो विरोध में असीम त्रिवेदी धरने पर बैठ गये। हालांकि उनकी तरफ किसी ने बहुत ध्यान नहीं दिया लेकिन हमारे फेसबुक फ्रेण्ड असीम और उनके फ्रेण्ड आलोक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने कार्टून वाली लड़ाई को आगे जारी रखने का निर्णय लिया।
असीम त्रिवेदी पर जो केस दर्ज हुआ है वह पिछले साल दिसंबर का है। खुद असीम ने अपने लिखे लेख में यह आरोप लगाया था कि मुंबई के एक कांग्रेसी नेता के इशारे पर उन्हें परेशान किया जा रहा है। सच्चाई भी यही थी। कांग्रेस के बड़भैय्ये नेता से लेकर छुटभैय्ये तक सभी नेटीजनों के खिलाफ लड़ाई में शूरवीरों वाली लिस्ट में अपना नाम लिखा लेना चाहते थे। क्या कपिल सिब्बल और क्या मुंबई के पांडेय जी। अन्ना आंदोलन से विरोध की जो आग पैदा हुई थी उसपर पानी डालने से लेकर रेत मिट्टी डालने और लात मारकर आग का मुंह कुचल देने तक का सब काम किया गया। लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर अब मुंबई हाईकोर्ट तक हर जगह कांग्रेसी कोशिशों को बड़ा झटका लगा।
लेकिन असीम के मामले में हुई कार्रवाई सिर्फ कांग्रेस के मुंह पर ही तमाचा नहीं है। यह उन सभी राजनीतिक दलों के नेताजनों को साफ साफ संदेश है कि नेटीजनों के साथ घालमेल करने की बजाय तालमेल करें। इक्कीसवीं सदी में जो नया मीडिया आकार ले रहा है उसमें बहुत कुछ आपत्तिजनक भी हो सकता है लेकिन हर आपत्ति का जवाब जेल ही नहीं होना चाहिए। असीम त्रिवेदी तो सिर्फ आहट और सुगबुगाहट है। अभी ये जो पांच करोड़ लोग किसी सोशल नेटवर्किंग साइट का सदस्य बन रहे हैं, असल में उस व्यवस्था की कब्र खोदने की सदस्यता भी ले रहे हैं जिन्होंने अब तक उनकी आवाज को कारपोरेट मीडिया के अंदाज से दबा रखा था। ये फेसबुक फ्रेण्ड भले ही एक दूसरे को उतना ही जानते हों जितना एक नेता अपने भाषण सुननेवाले को जानता है, लेकिन नेटलैण्ड के इन नये नेटीजनों का प्रभुत्व और प्रभाव उनसे भी कहीं ज्यादा हो चला है। नेताजनों के हक और हित में यही होगा कि वे इन नेटीजनों से टकराने की बजाय इन्हें आगे बढ़ जाने का सुरक्षित रास्ता दे दें।
(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)

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