मंगलवार, 29 जनवरी 2013

बुनकरों के हाथ काटने की तैयारी में कांग्रेस


बुनकरों के हाथ काटने की तैयारी में कांग्रेस

(लिमटी खरे)

हाथकरघा यह नाम आज की युवा पीढ़ी को शायद ही पता हो, इसका कारण यह है कि पिछले लगभग दो ढाई दशकों में हाथकरघे की खट खट ध्वनि उन्होंने ना सुनी हो। एक समय था जब हर शहर में मोहल्लों मोहल्लों में खट खट खट खट की आवाजें दिन रात निर्बाध रूप से आती थीं। यह हाथकरघा की ध्वनि थी जो कपड़ा बुनती थी। बुनकर बंधुओं की आजीविका का साधन था हाथकरघा। कालांतर में जैसे जैसे विज्ञान का विकास हुआ हाथ करघा की ध्वनि गायब होती गई। इसके बाद उन्नत हाथकरघे आए पर अब तो गजब ही होने वाला है। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार ने अब हाथ करघों को सौर उर्जा से चलाने का जतन आरंभ किया है। नेहरू के साथ गांधी नाम का उपयोग और उपभोग करने वाली कांग्रेस के निशाने पर अब गांधी ही हैं, वर्तमान गांधी नहीं वरन महात्मा गांधी।

पता नहीं क्यों सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस के गौरवशाली शालका पुरूष रहे राष्ट्रपिता महत्मा गांधी कांग्रेस के नए निजामों के निशाने पर हैं? पहले गांधी जयंती पर केंद्र सरकार द्वारा खादी को प्रोत्साहित करने वाली 20 फीसदी की छूट को समाप्त कर दिया अब आजादी की लड़ाई में चरखा चलाकर स्वदेशी का संदेश देने के कार्यक्रम पर कांग्रेस की नजर लग गई है। आने वाले समय में बुनकरों के द्वारा चलाए जाने वाला चरखा सौर उर्जा या बिजली से चलाया जाएगा।
कांग्रेस के नए निजाम चरखे के स्वरूप और चरित्र को ही बदलने का ताना बाना बुन रहे हैं जो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में ‘‘आजादी का बाना‘‘ था। गौरतलब होगा कि महत्मा गांधी ने अहिंसा आंदोलन में खादी और चरखे को रचनात्मकता के साथ स्वराज आंदोलन का एक प्रतीक बनाया था। बापू ने उस समय देश के लगभग तीस हजार गांव के 20 लाख बुनकरों को एक सूत्र में पिरोकर आजादी की अहिंसक लड़ाई के लिए प्रोत्साहित किया था।
हालात देखकर यह लगने लगा है कि देश पर आजादी के उपरांत आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी के द्वारा प्रेरित खादी कार्यक्रम को समूल ही नष्ट करने की जुगत लगाई जा रही है। खादी संस्थाएं केंद्र सरकार के इस कदम के खिलाफ खड़ी नजर आ रही हैं। संस्थाओं का मानना है कि अगर चरखे को बिजली या सौर उर्जा से चलाया जाएगा तो हाथ से तैयार सूत और मिलों में तैयार सूत में क्या अंतर रह जाएगा।
गौरतलब होगा कि खादी के उत्पादन पर विशेष जोर देने वाले मोहन दास करम चंद गांधी ने खादी के उत्पादन में किसी भी तरह की मशीन की इजाजत नहीं दी थी। वैसे भी अगर खादी उत्पादन में मशीनों का प्रयोग होने लगेगा तो बुनकरों के सामने आजीविका की जबर्दस्त समस्या खड़ी होने की उम्मीद है, क्योंकि बिजली या सौर उर्जा से चलने वाला चरखा निस्संदेह कम से कम दस बुनकरों के हाथ का काम छीन लेगा।
उल्लेखनीय होगा कि चरखे से सूत कातकर खादी का निर्माण कुटीर उद्योगों की श्रेणी में आता है, और इससे अशिक्षित भी इसका प्रयोग कर अपनी आजीविका चला सकता है। इसके लिए अधिक मेहनत की आवश्यक्ता भी नहीं होती है। यह काम घरेलू महिलाएं भी अपने खाली समय में आसानी से कर सकती हैं।
अस्सी के दशक के आरंभ तक देश के विद्यालयों में क्राफ्ट का एक कालखण्ड होता था, जिसमें बच्चों को कतली पोनी और चरखे के माध्यम से कपास से सूत कातना सिखाया जाता था, कालांतर में चरखा और कतली पोनी इतिहास की वस्तु हो बन गई हैं। अब तो मानो कतली पोनी का नाम ही युवाओं यहां तक कि प्रोढ़ हो चुकी पीढ़ी के जेहन से विस्म  ृत हो गया है।
अनेक स्थानों पर वहां के जनसेवकों ने सालों साल तक बुनकरों के परिवारों की आजीविका के मद्देनजर हाथकरघा को जिंदा रखा और इससे अस्पताल की पट्टियां और अन्य कपड़ों का उत्पादन सरकार के आदेशों से करवाया, पर अब लगने लगा है कि मानो बुनकरों का बुरा समय आ चुका है। सत्तर के दशक में हाथकरघा की खट खट खट अपने आप में एक रोमांच पैदा किया करती थी।
एक तरफ गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर और सदी के महानायक गुजरात में बापू के आश्रम में जाकर चरखा चलाकर खादी अपनाने का संदेश दे रहे हैं, दूसरी ओर कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा गरीब बुनकरों के हाथ काटने के पुख्ता इंतजाम किए जा रहे हैं, जिसकी निंदा और विरोध किया जाना चाहिए। वैसे भी कल तक जनसेवकों की पहली पसंद मानी जाने वाली खादी का स्थान अब टेरीकाट, पालिस्टर जीन्स, कार्टराईज और अधनंगे वस्त्रों आदि ने ले लिया है। (साई फीचर्स)

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