गुरुवार, 28 मार्च 2013

देश प्रयोगशाला नहीं है राजा साहेब!


देश प्रयोगशाला नहीं है राजा साहेब!


(लिमटी खरे)

सवा सौ साल का गौरवमयी इतिहास है कांग्रेस की झोली में। सवा सौ साल में कांग्रेस ने अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं। एक समय था जब सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, नैतिकता ही कांग्रेस की आन बान और शान हुआ करती थी। आज कांग्रेस में इन सारी चीजों के मायने मानो बदल गए हैं। इस देश पर आधी सदी से ज्यादा एकछत्र राज किया है कांग्रेस ने। आज कांग्रेस को राज करने के लिए ना जाने कितने दलों की बैसाखियों की जरूरत पड़ रही है। कांग्रेस ने कुछ सालों के अंतराल में चिंतन शिविर भी आयोजित किए हैं। इन शिविरों में व्यक्ति से ज्यादा संगठन के बारे में चिंता होती आई है। इक्कीसवीं सदी में जब जब कांग्रेस ने सर जोड़कर चिंतन किया है हर बार एसा प्रतीत हुआ कि चिंतन शिविर संगठन को मजबूत करने नहीं वरन् व्यक्ति विशेष को महिमा मण्डित करने के लिए आयोजित हुआ हो।

कांग्रेस शब्द सुनते ही नब्बे के दशक तक विश्वास का प्रतिरूप ही सामने आता रहा है। नब्बे के दशक के उपरांत कांग्रेस की नैया रसातल में जाना आरंभ हो गई। एक एक करके कांग्रेस के सारे आधार स्तंभ उखड़ते गए और कांग्रेस की नैया का पाल हवा में इधर उधर फड़फड़ाने लगा, जिसका परिणाम आज कांग्रेस की दिशाहीनता है। राजीव गांधी के निधन के उपरांत जब पी.व्ही.नरसिंहराव ने कांग्रेस को थामा तब नेहरू गांधी परिवार के साथ अपनी नजदीकी का फायदा उठाने वाले नेताओं को पसीने आने लगे। उनका रक्तचाप बढ़ा और एक बार फिर कांग्रेस की सत्ता की धुरी नेहरू गांधी परिवार की इतालवी बहू सोनिया मानियो के हाथों सौंप दी गई।
सोनिया गांधी की सरपरस्ती में कांग्रेस के आलंबरदार अपने आप को महफूज समझने लगे। यहीं से कांग्रेस का पतन आरंभ हुआ। सियसी मामलों में सोनिया गांधी पूरी तरह नासमझ ही थीं। उनके सलाहकारों ने अपने अपने हितों को ध्यान में रखकर पतवार चलाना आरंभ किया। कुछ समय में ही अलग अलग दिशा में चलने वाले चप्पुओं से कांग्रेस की नैया गोल गोल चक्कर खाने लगी। कांग्रेस के नेताओं को लगा मानो कांग्रेस की नैया भंवर में फंस गई हो।
चतुर सुजान नेताओं ने राज्यों में अपना एकाधिकार बढ़ाना आरंभ किया। सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, किन्तु उन्हें जमीनी हकीकत का बिल्कुल भान नहीं था। वे उसी रंग में रंगी दुनिया देख पातीं जिस रंग का चश्मा उन्हें लगा दिया जाता। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद लगभग डेढ़ दशक में कांग्रेस में रीढ़ वाले आधार सहित नेताओं का टोटा साफ दिखने लगा। कांग्रेस में अब बिना रीढ़, बिना जनाधार वाले नेताओं की फौज अग्रिम पंक्ति में साफ दिखाई पड़ रही है।
कांग्रेस की नजरों में भविष्य के वजीरे आजम राहुल गांधी को सत्ता का ताज पहनाने के लिए आतुर नेताओं ने उन्हें अपने हिसाब से सियासी ककहरा सिखाना आरंभ कर दिया। राहुल गांधी भी उसी रंग में रंगते चले गए जिस रंग में उनके शिक्षकों और सलाहकारों ने उन्हें रंगना चाहा। एकाएक राहुल गांधी के सहयोगियों ने उन्हें जमीनी हकीकत से दो चार करवाया कि देश में कांग्रेस का आधार तो बचा ही नहीं है।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय 24 अकबर रोड़ पर एक वरिष्ठ पदाधिकारी के साथ चर्चा के प्रसंग का जिकर यहां लाजिमी होगा। हम उन पदाधिकारी का नाम उजागर नहीं करना चाहेंगे पर वाक्या जरूर महत्व का है। चर्चा में उक्त पदाधिकारी ने कहा कि कांग्रेस को किस तरह मजबूत किया जा सकता है, इस बारे में कुछ प्रकाश डाला जाए। दरअसल, चंद दिनों बाद उनकी चर्चा सोनिया गांधी से होने वाली थी इसी संदर्भ में।
हमने उन्हें एक ही बात कही कि केंद्र में मंत्री और कांग्रेस के बड़े क्षत्रपों की जिम्मेदारी निर्धारित कर दी जाए। पद या मंत्री पद उसी आधार पर मिले कि वे अपने अपने राज्य में अपने प्रभाव वाले क्षेत्र से कांग्रेस के कितने सांसद विधायक जिताकर ला पाते हैं, यही आधार राज्यों में लाल बत्ती और संगठन में पद बांटते समय लागू कर दिया जाए। वस्तुतः वर्तमान में जितने भी क्षत्रप केंद्र में राजनीति कर रहे हैं उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में कांग्रेस मर चुकी है।
दरअसल, कांग्रेस के बड़े नेता अपने क्षेत्र में दूसरे किसी भी नेता को उभरने का मौका इसलिए नहीं देना चाहते क्योंकि दूसरे के उदय से दो पावर सेंटर बन जाएंगे और उनकी पूछ परख समाप्त हो जाएगी। होना यह चाहिए कि हर क्षत्रप को अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में सांसद विधायक की टिकिट देने के लिए फ्री हेण्ड दे देना चाहिए और अगर वे अपने तयशुदा उम्मीदवारों को ना जिता पाएं तो उन्हें घर बिठा देना चाहिए।
कांग्रेस के अंदर अराजकता के कारण अब अनुशासनहीनता भी बढ़ती जा रही है। देखा जाए तो पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता को ही पार्टी के बारे में राय जाहिर करना चाहिए। इससे उलट अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए कांग्रेस के बड़े नेता जब तब बयानबाजी से बाज नहीं आते हैं। राहुल गांधी के बारे में फैसला लेने का हक कांग्रेस की वर्किंग कमेटी को है पर उनके भविष्य का निर्धारण कांग्रेस के आला नेता करते आ रहे हैं।
हाल ही में कांग्रेस के एक बड़े नेता राजा दिग्विजय सिंह ने कहा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में दो शीर्ष नेताआं का प्रयोग असफल रहा है। राजा दिग्विजय सिंह का यह कहना ही आपत्तिजनक है कि दो शीर्ष नेता प्रयोग कर रहे हैं! उनका कहना है कि वर्तमान में सत्ता का केंद्र यूपीए अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह के बीच बटा हुआ है। यही कारण है कि केंद्र में दो पावर सेंटर बन गए हैं।
कुछ दिनों पूर्व राहुल गांधी ने सदन के केंद्रीय कक्ष में साफ कह दिया था कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। उनकी इस साफगोई से अनेक नेताओं का रक्त चाप तेजी से बढ़ गया। राहुल गांधी अगर सोनिया गांधी की राह पर चल पड़े तो राहुल गांधी का मनमोहन सिंह आखिर कौन होगा? इसी गुणा गणित में उलझे सियासी नेता जोड़ घटाने में उलझ गए। देश किस रास्ते पर जा रहा है, भ्रष्टाचार और मंहगाई ने आम आदमी का दम निकाल दिया है इस बात से किसी को लेना देना नहीं है।
एक निजी चेनल को दिए साक्षात्कार में राजा दिग्विजय सिंह ने कहा कि वे व्यक्तिगत तौर पर सोचते हैं कि दो नेताओं वाला माडल उचित नहीं है। जो प्रधानमंत्री है उसी के पास अथारिटी होना चाहिए। इशारों ही इशारों में राजा दिग्विजय सिंह ने यह जतला दिया कि प्रधानमंत्री के हाथों में कुछ नहीं है सब कुछ सोनिया गांधी के हाथों में है जो रिमोट से पीएम को चला रही हैं। विपक्ष को बैठे बिठाए एक अच्छा मुद्दा मिल गया है, पर पता नहीं 53 ग्रेड की सीमेंट की तरह सैट विपक्ष इस मामले को कितना भुना पाता है। (साई फीचर्स)

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