गुरुवार, 17 मई 2012

येदी के बहाने गड़करी पर वार


येदी के बहाने गड़करी पर वार

(आर.बी.सिंह)
बीजेपी आलाकमान को शायद इसी दिन का इंतज़ार था कि कर्नाटक के वरिष्ठ नेता वीएस येदियुरप्पा बगावत का बिगुल फूंके। बीजेपीवालों को यह कहने का मौका मिल गया है कि इस तरह से तो पार्टी नहीं चलती और इस बगावत की आड़ में एक बार फिर येद्दि को गद्दी से दूर रखा जाएगा। उनके बारे में कहा जा रहा है उन पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच करके रिपोर्ट देने के लिए कहा है इसलिए गद्दी देना मुमकिन नहीं है। अगर आरोप ही सबकुछ हैं तो फिर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के ऊपर भी एक गंभीर आरोप है। एक सात साल की बच्ची उनकी कार से मृत पाई गई थी। वे आरोप अभी भी गड़करी और उनके परिजनों पर लगे हुए हैं। तो क्या गडकरी को भी गद्दी छोड़ देनी चाहिए? नैतिकता का तकाजा तो यही है कि अगर आरोपमुक्त होने तक येदियुरप्पा को गद्दी से दूर रखा जा रहा है तो गड़करी को भी गद्दी छोड़ देनी चाहिए।
बीजेपी के इतिहास में शायद पहली बार है कि जब केंद्रीय नेतृत्व क्षेत्रीय सूरमाओं के सामने इतना लचर और पस्त दिखाई देता है। पार्टी अभी भी गल्तियों से सबक सीखने को तैयार नहीं है, इसके उलट बीजेपी नेता इस गुमान और अहंकार में चूर हैं कि जिसे पार्टी के खिलाफ जितना मोर्चा खोलना हो खोल ले, हश्र सभी का एक दिन बलराज मधोक, वाघेला, उमा-गोविंद और कल्याण सिंह जैसा ही होगा। यानी अपने पुरुषार्थ का भरोसा छोड़, उस कहानी और किंवदंती के प्रचार और प्रसार में बीजेपी आलाकमान जुटे हैं जो संयोग से कुछ मामलों में सच साबित भी हुई है। लेकिन जो पहले होता रहा, आगे भी होगा, कौन गारंटी लेगा? झारखंड में बाबू लाल मरांडी की लगातार बढ़ती हैसियत क्या बीजेपी के नेता महसूस नहीं कर पा रहे। आखिर बीजेपी पुरानी कहानी को लेकर गफलत में क्यों है? अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कद्दावर और उदार नज़रिए का नेता अब बीजेपी के पास नहीं है, जिसे जन्म कुंडली में ही शत्रुहंताका अमोघ दैवीय राजनीतिक सुरक्षा कवच हासिल था। मतलब अटल बिहारी के खिलाफ जिसने भी उंगली उठाई, बीजेपी में कम से कम उस नेता का तो सफाया हो ही गया। वाजपेयी को कुछ करना नहीं पड़ा, सब कुदरत ने अपने आप ही किया।
मुद्दा येदियुरप्पा का है। बीजेपी आलाकमान के पास तर्क है कि येदियुरप्पा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दे रखे हैं लिहाज़ा उन्हें कर्नाटक की गद्दी नहीं सौंपी जा सकती। वही आलाकमान जिसने वायदा किया था कि येदियुरप्पा अदालत से अगर बरी हुए तो उन्हें फौरन कर्नाटक की कुर्सी सौंप दी जाएगी, लेकिन सच ये है कि आलाकमान अपना वादा निभाने में नाकाम रहा। येदियुरप्पा को लोकायुक्त केस में कर्नाटक हाईकोर्ट ने बाइज्ज़त बरी किया था। अदालत का फैसला मार्च 2012 के पहले हफ्ते में ही आ गया लेकिन बीजेपी आलाकमान किसी ना किसी बहाने सत्ता हस्तांतरण का मौका टालता रहा। क्यों? येदियुरप्पा के मुताबिक, पार्टी महासचिव अनंत कुमार पार्टी आलाकमान का कान भरते हैं लिहाज़ा आलाकमान आजतक फैसला नहीं ले सका। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई 2012 को येदियुरप्पा के खिलाफ सीबीआई जांच के आदेश दिए, तो येदियुरप्पा विरोधियों को उनकी खिलाफत का अचूक हथियार मिल गया, लेकिन क्या सिर्फ जांच के आदेश से येदियुरप्पा सत्ता पाने से वंचित किए जाने चाहिए। क्या मोदी के खिलाफ जांच के आदेश नहीं थे? क्या गडकरी के खिलाफ जांच के आदेश नहीं हैं?
कर्नाटक में कमल खिलाने में येदियुरप्पा की भूमिका क्या रही, किसी से नहीं छुपी है। बीते 4 दशकों से कर्नाटक में उच्च मध्य वर्ग तक सीमित बीजेपी कर्नाटक में पिछड़े-किसानों तक अपनी बात पहुंचा सकी तो इसके पीछे येदियुरप्पा की मेहनत कम नहीं। हालांकि कर्नाटक में आरएसएस का काम भी ज़मीनी स्तर पर बेहद मज़बूत माना जाता है लेकिन राजनीतिक दंद-फंद में उसका प्रयोग तभी सफल हुआ जब उसने कर्नाटक के मज़बूत लिंगायत समुदाय में अच्छी पकड़ रखने वाले येदियुरप्पा का चेहरा आगे किया। वही येदियुरप्पा आज बीजेपी को न उगलते बन रहे हैं न निगलते। बीजेपी तय नहीं कर पा रही है कि आखिर येदियुरप्पा को मनाए तो कैसे? गौड़ा कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं है, पीछे से अनंत कुमार ने अड़ंगी लगा रखी है, तीसरे येदि के खिलाफ घोटालों का पुलिंदा खड़ा कर दिया गया है, ऐसे में बीजेपी आलाकमान की डगर फैसले को लेकर मुश्किल हो गई है। नतीजे तक पहुंचने के लिए जानकार बीजेपी को आईना देखने की सलाह दे रहे हैं।
दरअसल, आरोपों का सिलसिला राजनीति में हर नेता के ऊपर चस्पा है। अगर मुद्दा येदियुरप्पा के खिलाफ सीबीआई जांच है तो क्या ये सच नहीं है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी खुद मर्डर के एक मामले में सीआईडी जांच के दायरे में आ चुके हैं। आखिर उन्हें बगैर आरोपों से बरी हुए बीजेपी के अध्यक्ष पद पर बने रहने का क्या हक है? कोई कहेगा कि आरोप में सच्चाई नहीं तो इसके खिलाफ हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का आदेश दिखाया जा सकता है। पूरा मामला साल 2009 का है। गडकरी के घर के हाते में उनकी कार में एक 7 साल की बच्ची योगिता ठाकरे की लाश 19 मई, 2009 की शाम को मिली। लाश जिस वक्त मिली, उस वक्त हाते के गेट पर गडकरी के सुरक्षाकर्मी दो पुलिस कांस्टेबल मौजूद थे। घर में गडकरी के छोटे पुत्र निखिल गडकरी के मौजूद होने की बात भी बताई गई है।
सात साल की बच्ची  की लाश संदिग्ध हालत में गडकरी की कार होंडा सीआरवी एमएच 31 डीबी 2727 में पाई गई। उसकी पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक, उसके गुप्तांग पर घाव पाया गया, बच्ची की चड्ढी पर खून लगा मिला, उसकी दाहिनी जांघ पर भी खून लगा पाया गया। जिस वक्त बच्ची की मां विमल ठाकरे, निवासिनी-टीकरवाड़ी, दुसरा रोड, महाल, नागपुर बच्ची को खोजते हुए गडकरीवाड़े में दाखिल हुई तो गडकरी के सेक्रेट्री सुधीर देवूलगांवकर और पुलिस वालों का रवैया ही पूरे मामले पर शक की तलवार लटका देता है। बच्ची की मां का कहना है कि उसे फौरन लाश लेकर हाते से चले जाने को कहा गया। आनन-फानन में जिस कार में लाश मिली, उस कार को कहीं और भेज दिया गया। आरोप है कि पुलिस ने बाद में जांच के दौरान लाश की बरामदगी एक दूसरी कार, जो गडकरी के पूर्ति उद्योग के एमडी के नाम थी, उससे दिखा दी। असल कार जो लाश मिलने के बाद फौरन घर से हटाई गई, उसका हुलिया रातों रात बदला गया क्योंकि कार गडकरी के नाम थी। बच्ची के मां के मुताबिक, अगले दिन कार के अंदर से सीट कवर और वो तमाम चीजें नदारद थीं जिन पर बच्ची की लाश मिली थी और जिन पर कथित हत्या और रेप की कोशिश के अहम सुबूत मिल सकते थे।
खैर, राजनीतिक रसूख की बदौलत गडकरी खुद के परिजनों को हत्या के आरोप से पुलिस जांच में तो बचा ले गए लेकिन अदालत भी तो कोई चीज है। नागपुर कोतवाली पुलिस ने जांच की खानापूर्ति भर की, 5 मार्च 2011 को मामला सीआडी के पास गया तो उसने भी वही रवैया अपनाया, लिहाज़ा थक-हारकर योगिता के माता-पिता ने सीबीआई जांच के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जनवरी 2012 में हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने मामले की नए सिरे से जांच के आदेश दिए हैं। हाईकोर्ट ने कोतवाली पुलिस को गैर जिम्मेदाराना जांच के लिए कड़ी फटकार भी लगाई। बच्ची के माता-पिता का आरोप है कि गडकरी अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर जांच को हमेशा से प्रभावित करते रहे हैं।
लिहाज़ा, कई अहम सवाल पैदा होते हैं कि क्या गडकरी को आरोपों से बरी हुए बगैर क्या किसी राजनीतिक पद पर बने रहने का नैतिक हक़ है? आखिर बच्ची उनके घर के अहाते में कैसे मरी? क्या महज़ दुर्घटना थी? तो क्या पोस्ट मार्टम रिपोर्ट गलत है जिसमें उसकी योनि पर घाव है, पैंटी खून से सनी है? क्या उसकी मां का ये दावा गलत है कि बच्ची के साथ रेप की कोशिश हुई? क्या मामले में गडकरी आरोपी नहीं हैं? क्या वारदात उनके अहाते में नहीं हुई? जिस कार से बच्ची की लाश मिली वो कार गडकरी के नाम है या नहीं? कार फौरन घर से क्यों हटाई गई? बच्ची अगर गलती से कार में लॉक हुई तो जिम्मेदारी किसकी थी? क्या किसी ने भी उसे कार में बंद होते नहीं देखा? 7 साल की बच्ची की मौत बंद कार में दम घुटने से हुई तो उसके शरीर पर खून कहां से आया,  वो भी उसके अंतःवस्त्रों पर?  क्या इस बात में सच्चाई नहीं है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री जयंत पाटिल के जरिए सीआईडी और स्थानीय पुलिस पर मामले में दबाव बनाया गया। आगे भी लीपापोती जारी रहे इसके लिए एनसीपी से जुड़े कई पैसे वाले नेताओं नीतेश बनगादिया और प्रवीण पोटे को हाल ही में हुए विधान परिषद चुनाव में बीजेपी के समर्थन का रास्ता साफ किया। दोनों न सिर्फ पैसे वाले हैं बल्कि माफिया भी हैं। पूरा मामला टीवी चौनलों की सुर्खियां न बनें लिहाज़ा गडकरी ने चौनलों के साथ जमकर पीआर सेटिंग की।
दरअसल, ये कुछ ऐसे गंभीर सवाल हैं, जो सीधे तौर पर गडकरी और उनके परिवार की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। जिस महिला की बच्ची की संदिग्ध हालत में मौत हुई वो 2000 रुपये कमाने वाली एक मामूली नौकरानी है लिहाज़ा उसके हितों का ख्याल किसी को नहीं आया। अगर बच्ची की मां दो हजार की बजाए दो लाख रुपये महीने कमा रही होती, उसका राजनीतिक रसूख रहता तो क्या गडकरी उसकी ममता को पुलिस से अदालत तक ठोकर मारने में कामयाब हो पाते? कोढ़ में खाज़ ये कि महिला उसी महाल मोहल्ले की रहने वाली है जहां आरएसएस का मुख्यालय भी है, लेकिन क्या आरएसएस नेताओं को भी गरीब की आह सुनाई नहीं देती। क्या आरएसएस पर भी गडकरी की अकूत दौलत का रंग चढ़ गया है?

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