संस्कारों का हास: गिरता जीवन मूल्य
(श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’)
भारतीय सभ्यता और
संस्कृति अपने संस्कारांे के लिए पूरे विष्व में जानी जाती है। भारतीय संस्कारों
का ही परिणाम था कि एक समय भारत विष्व गुरू की पदवी धारण किए हुए था। यहॉं में
लेखक होने के नाते यह स्पष्ट कर देता हॅंू कि मेरा यहॉं संस्कारों से तात्पर्य
सनातन धर्म के 16 संस्कारों
से नहीं है वरन् दैनिक आचरण व जीवनषैली से जुड़े उन संस्कारों से है जिनके चारों ओर
हमारा जीवन जुड़ा हुआ है। हमारे देष की संस्कृति बहुधर्मी है और यहॉं एक कहावत
प्रचलित है कि कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी परन्तु इसके बावजूद भी हम एक
ऐसे सूत्र में पिरोए हुए हैं जो हम सबको भारतीय होने का गौरव प्रदान करता है और यह
सूत्र संस्कारों से पिरोया हुआ है।
हमारे यहॉं एक समय
ऐसा था जब अपने से बड़ों का आदर करना, गुरूजनों का सम्मान करना, पड़ोैसी पड़ोैसी में
भाई भाई जैसा प्रेम,
पूरे गॉव को एक ही परिवार के रूप में देखना आदि आदि ऐसी कईं
दैनिक आचरण की बातें थी जो हमें पूरी दुनिया से अलग करती थी। किसी के बीमार हो
जाने पर पूरे मौहल्ले का इकट्ठा हो जाना, मोैहल्ले या गॉंव में किसी की मृत्यु हो
जाने पर पूरे गॉंव में शोक का माहौल हो जाता था और किसी भी घर में खाना तक नहीं
बनता था। इन सब उदाहरणों से मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम्
की जिस भावना की बात करते थे उस भावना के अनुसार अपना जीवन भी व्यतीत करते थे।
हमारी कथनी और करनी में भेद नहीं था।
पिछले कुछ समय पर
गौर करें तो यह बात सामने आती है कि यह सब बातें अब बीते समय की हो गई है। हम कहने
को तो आज भी अपने आप को वैसा ही बताते हैं कि हम सब प्रेम से रहते हैं और हम मनुष्य
मनुष्य में भेद नहीं करते परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। आज के इस भागदौड़ के
जीवन में लोगों को अपने परिवार के लिए ही समय नहीं है और हालात ये है कि माता पिता
अपने बच्चों से हफ्ते भर तक बात तक नहीं कर पाते। संयुक्त परिवार की टूटती स्थिति
ने एकल परिवार की जिस संस्कृति को जन्म दिया है उससे संस्कारों का अवमूल्यन हुआ
है। आज बच्चा साथ रहना नहीं सीखता तो वह कैसे अपने मौहल्ले को परिवार के रूप में
आत्मसात करेगा। एक तरफ जहॉं उसके स्वयं के परिवार में परिवार जैसा माहौल नहीं है
तो उससे कैसे उम्मीद की जाए कि वह पूरे शहर में परिवार के रूप मंे अपना सकेगा।
आधुनिकता की दौड़ में हमने अंकतालिकाएॅ ंतो अच्छी बना ली है और करोड़ों के सालाना
पैकेज कैसे प्राप्त किए जाते हैं यह तो सीख लिया है लेकिन भाई भाई बनकर कैसे रहा
जाए यह भूल गए हैं,
हम भूल गए हैं कि कैसे हम अपने वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को
जीकर लोगों के सामने आदर्ष प्रस्तुत करें, अतिथि देवो भव की संस्कृति वाले इस देष में
आज अतिथि के आने पर चेहरे पर सल उभर आते हैं और सोचते हैं कि अतिथि तुम कब जाओगे।
भाई भाई में प्रेम नहीं रहा, बुजुर्गों का सम्मान समाप्त हो गया और हालात
ये हो गए कि बुजुर्गों के सम्मान के लिए हमें कानून बनाने पड़े। जिस देष में श्रवण
कुमार की कहानियॉं सुनाई जाती थी वहीं आज मॉं बाप के रिष्तों को तार तार करती
नुपुर तलवार की खबरें सुर्खियों में है। संस्कृति के इस अवमूल्यन ने भारत की साख
को हल्का कर दिया है। आज हमें किसी पर भी विष्वास नहीं रहा। भरोसे के रिष्ते
समाप्त हो गए हैं। हम डर के माहौल में जी रहे हैं। संस्कृति की जड़ों के हिलने से
हमारे खुषियों और परिवार व समाज की समृद्धि के फूल पनप नहीं रहे हैं। युवा पीढ़ी
भटकाव के दौर में है। रेव पार्टियों में खुले आम अष्लील व नषाखोरी की ताल पर नाचता
युवा अपने पुरावैभव व पुरा संस्कृति से अपरिचित है। मॉं बाप से जूठ बोलना, गुरूजनों का अपमान
करना, पड़ौसी को
पहचानना ही नहीं ओैर हर किसी ओर लोभ लालच व अष्लील नजरों सेे देखने की प्रवृति ने
हमारे अंदर के भारतीय गौरव को समाप्त कर दिया है।
आज जरूरत है अपने
अतीत के गौरवषाली इतिहास से सांस्कृतिक वैभव को अपनाने की ओर हम एक परिवार के रूप
में रहना सीखे हम भाई भाई की तरह रहे लालच को त्याग दे और जब पूरी वसुधा की हमारा
घर हो जाएगी तो फिर क्या तेरा और क्या मेरा वहॉं तो सब सबका हो जाएगा। आओ हम सब
मिलकर एक ऐसे भारत के निर्माण का संकल्प ले जो पूरे विष्व के भाल पर तिलक की तरह
चमके।
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