नूरा कुश्ती में
पिस रहा आम भारतीय
(लिमटी खरे)
देश को आजाद हुए
साढ़े छः दशकों से ज्यादा समय हो गया है। आज भी भारत गणराज्य में सही मायने में
आजादी का प्रकाश नहीं पहुंच पाया है। आज भी देश की रियाया पिस ही रही है। देश के
हुक्मरानों ने आजादी के उपरांत भोले भाले भारतवासियों को छलने का जो उपक्रम किया
वह आज भी बदस्तूर जारी ही प्रतीत हो रहा है। आजादी के पहले लगान दिया करते थे, जिसे आज की भाषा
में टेक्स या कर की संज्ञा दी जा सकती है। आज पानी बिजली और मूलभूत सुविधाओं के
बिना ही देश का हर नागरिक कर देने पर मजबूर है। आजाद भारत में इससे बड़ी विडम्बना
क्या होगी कि पिछले एक दशक में नित नए घोटाले सामने आते जा रहे हैं और हुक्मरान
तथा विपक्ष के दल नूरा कुश्ती कर लोगों का ध्यान बंटा रहे हैं। मीडिया में भी
घराना पत्रकारिता की जड़ें गहरी हो गईं हैं। मीडिया, नौकरशाह और
जनसेवकों के त्रिफला ने लोगों का हाजमा बुरी तरह बिगाड़ दिया है।
आजादी के उपरांत
देश में चुने गए नेता खुद को सेवक या जनसेवक कहा करते थे। आज जनसेवक की परिभाषाएं
बदल गईं हैं। अब जनसेवक खुद को हुक्मरान वह भी हिटलर समझने लगे हैं। उनके मन में
जो आता है वह करते हैं। आज जनसेवकों को किसी की परवाह मानो रह ही नहीं गई है। घपले
घोटाले और भ्रष्टाचार के बाद भी मोटी चमड़ी वाले नेता बेशर्मी के साथ जनता का सामना
करते नजर आ रहे हैं।
लगता है अब वह
जमाना गया जब राम मनोहर लोहिया या जयप्रकाश जैसी हस्तियां हुआ करती थीं। देश में
गोयनका, मायाराम
सुरजन जैसे पत्रकार हुआ करते थे। लोहिया के अनुयाई मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, पासवान, आदि अब वर्तमान
परिवेश मे ढलते दिख रहे हैं।
लगभग पचास साल
पूर्व 1963 में राम
मनोहर लोहिया उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे और गैर कांग्रेसवाद के नारे को हवा दी।
लोहिया के इस प्रयास को पंख लगे 1967 में जब कांग्रेस बहुमत के एकदम करीब पहुच
गई थी। आपातकाल के उपरांत देश की जनता ने कांग्रेस को नकार दिया था। इसके बाद
कांग्रेस का पतन आरंभ हुआ। इक्कीसवीं सदी में तो कांग्रेस का नैतिक पतन ही आरंभ हो
गया।
सत्ता की मलाई चखने
के लिए कांग्रेस ने मानों अस्मत ही गवां दी। देश के प्रधानमंत्री सर्वजनिक तौर पर
कहें कि गठबंधन धर्म की मजबूरियां होती हैं। इसके मायने क्या हैं? साफ है कि आज
कांग्रेस और केंद्र सरकार के लिए राष्ट्रधर्म और जनसेवा से बड़ा गठबंधन धर्म है।
प्रधानमंत्री
डॉ।मनमोहन सिंह खुद को मजबूर बताते हैं। क्या हालत हो गई है आज? गठबंधन की
मजबूरियां हो सकती हैं, किन्तु गठबंधन की मजबूरियों के चलते देश को लूटने की इजाजत
देना कहां का राष्ट्र धर्म और देश प्रेम है? क्या गठबंधन की मजबूरी के मायने देश को
लूटना का लाईसेंस देना है?
कामन वेल्थ, एस बेण्ड, टूजी, कोयला और ना जाने
कितने घोटाले हैं जो एक के बाद एक उजागर होते चले गए। विपक्ष में बैठा संप्रग भी
विरोध की रस्म अदायगी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करता गया। लोगों पर करारोपण कर
सरकारी खजाना भरना फिर उस खजाने को लूटना मानो सरकारों की नियति बन गई है।
हाल ही में कोयले
के मामले को लेकर संसद ठप्प है। इसके पहले तहलका मामले में कांग्रेस ने 20 दिन तक संसद में
गतिरोध बनाया था। अब भाजपा जहां प्रधानमंत्री के बयान से आगे इस्तीफा मांग रही है
वही सरकार के संसदीय कार्यमंत्री राजीव शुक्ला ने कहा है कि भाजपा संसद इसलिए नहीं
चलने दे रही है क्योंकि अगर कोयले की कालिख साफ होनी शुरू होगी तो भाजपा के कई
मुख्यमंत्रियों के चेहरे भी बेनकाब हो जाएंगे।
राज्य सभा में
उपसभापति को निर्देश देते पकड़े गए राजीव शुक्ला ने सीधे तौर पर मध्य प्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का नाम लिया कि उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर
कुछ खास लोगों को कोयला ब्लाक आवंटित करने का आग्रह किया था। बात सही है। कोयले का
दाग शिवराज के दामन पर भी हैं।
देखा जाए तो टू-जी
स्पैक्ट्रम की तर्ज पर संसद में पेश सीएजी की रिपोर्ट तमाम निजी कंपनियों को कोल
ब्लाकों का आवंटन किया गया, जिसके चलते सरकारी खजाने को 1 करोड़ 86 लाख करोड़ रुपए की
चपत का अनुमान है। इस गर्मा गर्म मामले को जब मीडिया ने उछाला तो मौका देख विपक्ष
ने प्रधानमंत्री का त्यागपत्र ही मांग लिया। दरअसल, कोल ब्लाक आवंटन के
वक्त मनमोहन सिंह के पास कोयला मंत्रालय था।
अभी तक
प्रधानमंत्री के उपर भ्रष्ट मंत्रियों को संरक्षण देने के आरोप के चलते उन्हें
परोक्ष तौर पर भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक होने का आरोपी भी बताया जाता था। कैग
की रिपोर्ट के खुलासे के बाद उनकी रही सही साख भी पूरी तरह धूल धुसारित ही हो चुकी
है। कोयले की कमी के कारण देश के ना जाने कितने पावर प्लांट ठप्प पड़े हैं। कुछ
निजी पावर प्लांट तो दक्षिण आफ्रीका से कोयला आयात करने की जुगत में लग चुके हैं।
कोयले की कमी के
कारण बैठे पावर प्लांट के कारण बिजली की हालत किसी से छिपी नहीं है। नेशनल ग्रिड
फेल हो जाने से पिछले माह के अंत में 22 राज्यों में बिजली का संकट भी लोगों के
सामने ही है। देश में घपले घोटालों की बाढ़ आई हुई है। देखा जाए तो किसी भी मंत्री
के द्वारा लिए गए निर्णय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की इसलिए होती है क्योंकि वे
मंत्रीमण्डल के मुखिया हैं। इस बार प्रधानमंत्री को सीधे कटघरे में खड़ा किया गया
है। बजाए मुंह चुराने के प्रधानमंत्री को आरोपों का सामना करना ही चाहिए।
कहा जा रहा है कि
कैग ने अपनी रिपोर्ट में रिलायंस पॉवर को कोयला खदानों के आवंटन के 29 हजार करोड़ रुपए का
फायदा पहुंचाने का जो आरोप लगाया है, उसका एमओयू इंदौर की अक्टूबर 2007 में आयोजित ग्लोबल
इन्वेस्टर्स मीट में ही किया गया था।। जिसमें मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के साथ
अनिल अंबानी भी मौजूद थे और उन्होंने मध्यप्रदेश में लगने वाले रिलायंस पॉवर प्रोजेक्ट
के लिए एमओयू कर 50 हजार करोड़
रुपए के निवेश का दावा किया गया।
इंदौर में अक्टूबर 2005 में आयोजित ग्लोबल
इंवेस्टर्स मीट में की मीट में साइन किए गए इस एमओयू के आधार पर ही प्रदेश सरकार
और खासकर मुख्यमंत्री ने न सिर्फ सासन पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 991 हेक्टेयर वन भूमि
के आवंटन की प्रक्रिया शुरू की, बल्कि अतिरिक्त कौल ब्लाक आवंटन में भी मदद
की गई।
कांग्रेस का आरोप
कि भाजपा इसलिए सदन नहीं चलने देना चाहती क्योंकि अगर बहस हुई तो भाजपा ही बेनकाब
होगी, पर यकीन कर
लिया जाए तो क्या कांग्रेस नीत संप्रग सरकार की जवाबदेही यह नहीं बनती कि बिना बहस
के ही जनता के सामने भाजपा का असली चेहरा लाया जाए। क्यों बार बार मुद्दे से ध्यान
हटाया जा रहा है।
इतिहास इस बात का
साक्षी है कि घपले घोटालों के प्रकाश में आने और उसमें मामले कायम होने के बाद अब
तक सुखराम को छोड़कर किसी अन्य को सजा का शायद ही कोई उदहारण हो। कहने का तातपर्य
यह कि जनसेवकों के दबाव में मामले लंबित रखे जाते हैं। जैसे ही सरकार के खिलाफ
किसी के द्वारा दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है उसकी घोटाले की फाईल के उपर से
धूल पोंछ कर उसे जिन्दा कर दिया जाता है।
यक्ष प्रश्न तो यही
है कि देश में आखिर एसा कब तक होता रहेगा। मंदी के दौर में कांग्रेस अध्यक्ष
श्रीमति सोनिया गांधी हवाई जहाज की इकानामी क्सास में बीस सीट आरक्षित कर उन्हें
खाली रखकर दिल्ली से मुंबई जाती हैं, तो कांग्रेस के युवराज शताब्दी एक्सप्रेस की
पूरी बोगी को रिजर्व करवाकर दिल्ली से चंडीगढ़ की यात्रा करते हैं। आखिर क्या संदेश
देना चाह रहे हैं जनसेवक?
गांधीवादी समाजसेवी
अण्णा हजारे जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते हैं या बाबा रामदेव जब काले धन के
खिलाफ हुंकार लगाते हैं तो देश उनके साथ खड़ा दिखाई देता है। इससे साफ हो जाता है
कि आम आदमी भ्रष्टाचार से कितना आहत है। यह सब ना तो सरकार को दिखता है और ना ही
विपक्ष को। लालू यादव जैसे लोग बाबा को योग सिखाने की ही सीख देते नजर आते हैं।
सदन में अपने वेतन
भत्ते बढ़वाने के लिए सांसद विधायक कभी विरोध करते नजर नहीं आए। सांसदों को दिल्ली में
निशुल्क आवास, बिजली फोन, जनसंपर्क निधि, क्षेत्र में भ्रमण
पर भत्ता आदि ना जाने क्या क्या सुविधाएं दी जाती हैं। कमोबेश यही सुविधाएं
विधायकों को भी हैं। इसके बाद अपने वेतन भत्तों के लिए वे कितने फिरकमंद होते हैं।
किसी को भी आम आदमी की चिंता नहीं है।
हमें यह कहने में
कोई गुरेज नहीं कि जनसेवकों की चाहे वे किसी भी दल के हों, आपस की नूरा कुश्ती
में अंतत्तोगत्वा मरण तो गरीब गुरबों की ही है। सरकार जैसा चाहे वैसी नीति बनाकर
अपना हित साध लेती है। जमीनी तौर पर उसके क्या परिणाम होंगे इस बात से किसी को
लेना देना नहीं है। इन परिस्थितियों में अंधा पीसे कुत्ता खाए की कहवत चरितार्थ
होती ही दिख रही है। (साई फीचर्स)
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