सरल जीवन का सुंदर
दर्शन
(अनिल सौमित्र / विस्फोट डॉट काम)
81 वर्ष की अवस्था में भी सुदर्शन जी का अपना जीवन
दर्शन बहुत बाल सुलभ था। अक्सर लोग उनके इस बाल सुलभ दर्शन को परख नहीं पाते थे और
सवाल उठाते थे लेकिन स्वयंसेवक से सरसंघचालक तक की अपनी संघ यात्रा में उनकी सहजता, सरलता और भारतीय
परंपराओं के प्रति अगाध श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। हृदयरोग जैसी गंभीर बीमारी के
बावजूद उन्हें देशज तरीकों और परहेजों से हृदयरोग को दूर रखा। लेकिन आज उसी हृदय
पर लगे आघात ने उन्हें हम सबसे हमेशा के लिए दूर कर दिया।
सुदर्शन जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक से सरसंघचालक बने। इस दौरान उनके निर्दाेष, सरल और सहज किंतु
स्पष्ट और बेबाक विचारों के कारण कई बार विवाद भी हुआ। श्रीमती सोनिया माइनों पर
उनकी टिप्पणी हो या गांधी हत्या के बारे में उनके विचार, अपने तथ्यपरक
विचारों को उन्होंने कभी छुपाया नहीं। वे मतभेद और प्रेम कभी छुपाते नहीं थे।
एनडीए सरकार की नीतियों और कार्यपद्धति पर उनकी प्रतिक्रियाओं से खासा विवाद भी
हुआ था। वे राजनीति की कुटिलता और प्रपंच को बखूबी समझते थे, लेकिन अपने
व्यक्तित्व की सरलता के कारण वे कुटिलताओं और प्रपंचों से हमेशा हारते रहे। कई दफे
विवादित भी हुए। शायद यही कारण था कि बाद के दिनों में अपना अधिक समय ग्राम विकास, हिन्दी के विकास और
विस्तार, तकनीकों के
स्थानीकरण और उसे लोकोपयोगी बनाने के रचनात्मक काम में लग गये थे। अगर कोई उनसे
मिलने जाता तो पहले तो वे उससे परंपरागत तकनीक और देशभर में हो रहे सैकडों
प्रयोगों के बारे में घंटों बताते। फिर अपने पास संग्रहित दसियों माडल बताते।
ग्राम विकास, कृषि, गौ-पालन और उर्जा
आदि के देशज और परंपरागत अनुभवों और जानकारियों के बारे में बात करके कोई भी
उन्हें अपना प्रशंसक बना सकता था।
खालिस्तान समस्या
हो या घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, उन्होंने संगठन के माध्यम से देश को ठोस
सुझाव और सही निदान दिये। संघ के कार्यकर्ताओं को उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन
को गलत दिशा में जाने से रोका। पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि प्रत्येक
केशधारी हिन्दू हैं तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति
आस्था रखने के कारण सिख है। इस सोच के कारण खालिस्तान आंदोलन की चरम अवस्था में भी
पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हुआ। इसी प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बंगलादेश
से आने वाले मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। उन्हें वापस भेजना ही चाहिए।
किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही
समाधान ढूंढ निकालना उनकी विशेषता थी। खालिस्तान आन्दोलन के दिनों में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ नामक संगठन की नींव
रखी गयी, जो आज
विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है। आरएसएस के मुखिया के तौर पर वे
हमेशा तुष्टीकरण के खिलाफ रहे, लेकिन मुसलमानों के भारतीयकरण के पक्षधर।
उनकी ही प्रेरणा से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का गठन हुआ। प्रख्यात स्तंभकार
मुज्जफ़्फर हुसैन हों या बुजुर्ग नेता आरिफ बेग, सुदर्शन जी के साथ
इस्लाम के विषय पर घंटों चर्चा करते थे। वे मुसलमानों को न सिर्फ उदार बल्कि
शिक्षित, सहिष्णु और
राष्ट्रवादी बनाने के लिये भी फिक्रमंद थे। यही कारण है कि मुसलमानों के बीच एक
बडा वर्ग तैयार हुआ है जो राममंदिर आंदोलन का समर्थन, गोरक्षा के लिए
केन्द्रीय कानून बनाने का आग्रह, रामसेतु विध्वंस का विरोध, अमरनाथ यात्रा में
हिन्दुओं के अधिकारों का समर्थन और आतंकवादियों को फांसी देने की मांग करता है।
मुसलमानों में ऐसा नेतृत्व उभर रहा है, जो हर बात के लिए पाकिस्तान या अरब देशों की
ओर नहीं देखता। इस लिहाज से मुसलमानों के मामले में सुदर्शन जी को प्रगतिशील कहा
जा सकता है।
संघ कार्य में
सरसंघचालक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा
कि स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ
कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय
प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन
जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह
श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के पांचवें सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर
बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। कन्नड़ परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर
अपना नाम बोलते हैं। उनके पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश
समय मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन
जी का जन्म हुआ। तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे।
रायपुर, दमोह, मंडला तथा
चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर विश्वविद्यालय) से 1954 में दूरसंचार विषय
में बी.ई की उपाधि ली तथा तब से ही संघ-प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन
समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया। प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि
की जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद 1964 में वे मध्यभारत
के प्रान्त-प्रचारक बने।
सुदर्शन जी अनुशासन
के मामले में कभी समझौता नहीं करते थे। संघ कार्य में उन्होंने निष्ठा और
प्रामाणिकता की ही तरह गुणवत्ता को भी महत्व दिया। वे अंतिम समय तक सक्रिय रहे।
निष्क्रियता उन्हें सुहाती नहीं थी। अपने जीवन में उन्होंने प्रशिक्षण और अभ्यास
को सिद्धांत के साथ गुंथ दिया था। शाखा हो या प्रशिक्षण वर्ग, वे घंटों शारीरिक
और मानसिक श्रम करते देखे गये। संघ के वे इकलौते घ्से ज़्येष्ठ कार्यकर्ता रहे हैं
जिन्होंने शारीरिक और बौद्धिक दोनों कार्यों के प्रमुख का दायित्व वहन किया। वे
बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। उन्हें संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया, उसमें अपनी नव-नवीन
सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल
भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन
शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक
पाठ्यक्रम में स्थान मिला। आज तो प्रातःकालीन शाखाओं पर आसन तथा विद्यार्थी शाखाओं
पर नियुद्ध एवं खेल का अभ्यास एक सामान्य बात हो गयी है।
आपातकाल के अपने 19 माह के बन्दीवास
में उन्होंने योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिलकुल बदल
डाला। योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर
का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। 1977 में उनका केन्द्र
कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ वे पूर्वात्तर भारत के क्षेत्र
प्रचारक भी रहे। 1979 में वे
अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक
कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक
कार्यक्रम (चर्चा,
कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम
(बौद्धिक वर्ग, समाचार
समीक्षा, जिज्ञासा
समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र
आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को
सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने
प्रचलित कराया। 1990 में
उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी।
वैसे जिस विचार और
संगठन परंपरा से वे जीवनपर्यंत आबद्ध रहे उसमें वयक्तित्वों की तुलना कठिन है।
वहां लगभग एक जैसे गुण-स्वभाव वाले लोग होते हैं। लेकिन सुदर्शन जी इस मामले में
विशेष थे कि वे पहले दक्षिण भारतीय और दूसरे गैर महाराष्ट्रीयन सरसंघचालक हुए। कन्नड
और अंग्रेजी से ज्यादा वे हिन्दी पर अधिकार रखते थे। पूर्वांचल में कार्य करते हुए
उन्होंने वहां की समस्याओं का गहन अध्ययन किया। अध्ययन करते हुए उन्होंने बंगला और
असमिया भाषा पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया। इसके अलावा भी वे कई भाषाओं का
ज्ञान रखते थे। हिन्दी के प्रति उनके विशेष आग्रह के कारण ही मध्यप्रदेश में
हिन्दी विश्वविद्यालय की कोपलें फूंटी। आज वे नहीं हैं, लेकिन हिन्दी में
विज्ञान और तकनीक,
चिकित्सा और अभियांत्रिकी जैसे विषयों की साधना करने वालों का
स्वप्न साकार होने लगा है।
बढती उम्र ने
उन्हें कई समस्याएं दी। वे स्मृतिलोप के शिकार होने लगे थे। उन्होंने अपनी नहीं, अपनों की परवाह की।
देह और मन कमजोर होता रहा, लेकिन वे देश-समाज की समस्याओं से जूझते रहे। उनके निकटस्थ
लोगों को पता है, वे ज्योतिष
के भी जानकार थे। ज़्योतिष के कई विद्वानों के साथ उनकी लंबी चर्चाएं भी हुआ करती
थी। शायद वे इस जीवन के अंत और अगले जीवन के प्रारब्ध से परिचित थे। यह भी एक
संयोग है कि 15 सितम्बर, 2012 को अपने जन्म-स्थान
रायपुर में ही उनका देहांत हुआ। श्री सुदर्शन जी ने एक हिन्दू के रूप में जन्म
लिया। एक स्वयंसेवक के रूप में देश-समाज और मानवता की सेवा की। पुनर्जन्म में
हिन्दुओं का अकाट्य विश्वास है। अपनी धर्म के प्रति निष्ठा, हिन्दुत्व के प्रति
अटूट श्रद्धा, मानवता की
सेवा का व्रत और संघ की प्रतीज्ञा उन्हें बार-बार हमारे बीच लायेगा। संभव है
सुदर्शन जी ने जैसे अपने पुराने शरीर का त्याग किया है, शायद वैसे ही
सर्वथा नूतन शरीर में प्रवेश कर लिया हो! इस दृष्टि से उनके जाने और आने का विषाद
और हर्ष दोनों ही होना स्वाभाविक है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें