मौनमोहन का मुखर
फैसला
(संजय तिवारी)
एक झटके में सरकार
ने सब हिसाब बराबर कर लिया. कैबिनेट के दो कमेटियों की दो अलग अलग बैठकों में
सरकार ने कुछ निर्णय लिये और कोल ब्लाक के डेडलॉक को ध्वस्त कर दिया. पहले कैबिनेट
के पोलिटिकल निर्णयों वाली कमेटी सीसीपीए की बैठक होती है और पेट्रो उत्पादों में
डीजल की कीमतों में पांच रूपये की बढ़ोत्तरी कर दी जाती है, उसके अगले दिन
शुक्रवार को कैबिनेट कमेटी आन इकानॉमिक अफेयर्स की बैठक होती है और सरकार की सेहत
सुधारने के नाम पर पूंजी प्रवाह के कुछ अवरुद्ध निर्णयों को स्वीकार कर लिया जाता
है. खुदरा क्षेत्र में एफडीआई, उड्डयन में एफडीआई, ब्रॉकास्टिंग
कंपनियों में विदेशी निवेश और सरकारी की अपनी कुछ कंपनियों में विनिवेश को मंजूरी
दे दी.
कुल जमा 24 घण्टे के अंदर
मन्नू सरदार ने वह कर दिया जो वे आठ साल में नहीं कर पाये थे. कैबिेनेट की जिन
कमेटियों ने 24 घण्टे के
अंदर ये क्रांतिकारी निर्णय लिये हैं, कमोबेश इन आठ सालों में उन कमेटियों के
चेरयमैन प्रणव मुखर्जी थे. चाहे वे विदेश मंत्री रहे हों या फिर वित्त मंत्री, कैबिनेट की सीसीपीए
और सीसीईए के चेयरमैन वही रहते थे. कैबिनेट की ये दो कमेटियां महत्वपूर्ण हैं
क्योंकि राजनीति और अर्थनीति के अलावा सरकार के पास तीसरा कोई खास काम होता नहीं
है. लेकिन उधर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति भवन पहुंचे और इधर मनमोहन सिंह ने चौबीस
घण्टे के अंदर वह कर दिया जो वे आठ साल में नहीं कर पा रहे थे.
सरकार के इन
निर्णयों के चंद घण्टे भी नहीं बीते थे कि विदेशी समाचार एजंसियों और समाचार
माध्यमों ने मनमोहन सिंह में श्मोजोश् खोज निकाला. वही श्मोजोश् जो किसी बूढ़े आदमी
में वियाग्रा सी ताकत भर देता है. मनमोहन सिंह की तारीफों के पुल ही नहीं बांधे जा
रहे हैं पूरा का पूरा रामसेतु तैयार किया जा रहा है. कल तक जो अमेरिकी या यूरोपीय
मीडिया घराने मनमोहन सिंह की मां बहन कर रहे थे, सिर्फ चंद घण्टों
के अंदर मनमोहन सिंह से बड़ा दूसरा आर्थिक सुधारवादी नजर नहीं आ रहा है. विदेशी या
फिर विदेशी मानसिकता की मीडिया का यह रुख बहुत असहज नहीं है. अर्थ और वित्त की जिस
समझ से वे विकसित और संचालित होते हैं उसमें कंपनियों की पूंजी लगी होती है इसलिए
कंपनियों का हित इन मीडिया घरानों के लिए सर्वाेपरि होता है. नहीं तो कोई रॉयटर
ऐसे वक्त में मनमोहन सिंह की तारीफ करते समय यह भी बताने की कोशिश जरूर करता कि
कैसे अमेरिका में ही बाजार के वैकल्पिक रास्ते विकसित किये जा रहे हैं.
रॉयटर, एपी, एएफपी और टाइम, इकोनॉमिस्ट जैसे
मीडिया घराने तब खुश होते हैं जब उनमें पूंजी निवेश करनेवाले निवेशकों के हित
सुरक्षित होते हैं. भारतीय खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश की वकालत नई नहीं
है. भारत के 450 अरब डॉलर
के खुदरा व्यापार पर अमेरिकी की वालमार्ट ने भारत के खुदरा कारोबार में पैर गिराने
के लिए क्या क्या जतन नहीं किये. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल से यह कवायद चल
रही है कि किसी न किसी तरह खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को आने की इजाजत मिल
जाए. अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मनमोहन सिंह की सरकार में भी वालमार्ट ने अपनी
कोशिशो में कोई कमी नहीं की. मंत्रालयों में नियम बनवाने से लेकर नेताओं और अफसरों
को विदेश घुमाने तक का कोई हथकंडा ऐसा नहीं था जिसे वालमार्ट ने इस्तेमाल न किया
हो. आखिरी कोशिश दिल्ली की एक प्रतिष्ठित एनजीओ के जरिए की गई जब सेन्टर फार
पालिसी रिसर्च की ओर से कुछ चुनिंदा सांसदों को रिसर्च सहायक उपलब्ध करवाये गये.
बताया गया कि इन सहायकों की सैलेरी वालमार्ट कंपनी की ओर से दिया जानेवाला था.
हालांकि इस कोशिश को गृहमंत्रालय ने रोक दिया लेकिन वह कोशिश काम आई जो विदेशी
मीडिया के जरिए की गई.
अब जबकि मनमोहन
सिंह ने रिटेल में 51 फीसदी
एफडीआई को मंजूरी दे दी है तब यकीन से कहा जा सकता है कि विदेशी मीडिया द्वारा
मनमोहन सिंह सरकार का जो निंदा कार्यक्रम चलाया गया था, निश्चित रूप से वह
सघन अमेरिकी सरकार और कंपनियों की कारस्तानी रही होगी. अमेरिकी प्रेमी मनमोहन सिंह
को सोनिया गांधी की नाराजगी से भी उतनी दिक्कत नहीं होती है जितनी वाशिंगटन पोस्ट
में चोरी छिपे लिखे गये एक आर्टिकल से हो जाती है. पूरा देश मनमोहन सिंह को कोसता
रह गया उन्हें फर्क नहीं पड़ा. फर्क पड़ा तब जब टाइम मैगजीन ने उन्हें अंडर अचीवर कह
दिया. निश्चित रूप से हमारे प्रधानमंत्री महोदय अमेरिका या फिर अमेरिकी मीडिया की
नजर में नीचे नहीं गिरना चाहते. उस पर भी तुर्रा यह कि अमेरिकी मीडिया संस्थान
भाजपा और नरेन्द्र मोदी में भविष्य देखने लगे थे. निश्चित रूप से इसके बाद तो
मनमोहन सिंह को वह करना ही था जो अमेरिकी कंपनी वालमार्ट लंबे समय से चाहती थी.
लेकिन सीसीईए की इस
शुक्रवारी बैठक में सिर्फ विदेशी कंपनियों का ही ख्याल रखा गया हो, ऐसा भी नहीं है.
भारत के विजय माल्या जैसे डूबते एयरलाइन्स व्यापारियों की लॉबिंग को भी तवज्जो दी
गई है. नागरिक उड्डयन क्षेत्र में भी 49 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे दी गई है.
निश्चित रूप से पूंजी का रोना रो रहे एयरलाइन कंपनियों को इससे बड़ी राहत मिलेगी और
कम से कम विजय माल्या की हांफती किंगफिशर फिर से पंख फड़फड़ाने लगेगी. इसी तरह कुछ
और घरेलू व्यापारियों के लिए समृद्धि का रोडमैप तैयार किया गया है और कुछ सरकारी
कंपनियों में 10 से 12.5 प्रतिशत विनिवेश
का प्रस्ताव पारित कर दिया गया है. जिनमें विनिवेश का प्रस्ताव किया गया उसमें
ज्यादातर खनन कंपनियां हैं. एमएमटीसी, हिन्दुस्तान कॉपर, नेशनल एल्युमुनियम
और आयल इंडिया लिमिटेड शामिल हैं. सरकार पिछले वित्त वर्ष में विनिवेश से जो चालीस
हजार करोड़ रूपया जुटाना चाहती थी उसमें से सिर्फ 14 हजार करोड़ ही
हासिल कर पाई. अब इन कंपनियों में अंशधारिता बेचने से वह 15 हजार करोड़ रूपया
अपने खर्चे के लिए जुटाएगी.
इस जोड़ घटाव से
सरकार अपना आर्थिक गणित तो ठीक करेगी लेकिन राजनीतिक गणित को भी ठीक रखने की कोशिश
की गई है. मसलन जिस सीसीईए ने रिटेल में एफडीआई का निर्णय लिया हैं उसमें केन्द्र
राज्य संबंधों में पहली बार राज्य को राष्ट्र का दर्जा दे दिया गया और कहा गया है
कि खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश उसी राज्य में आयेगा जो राज्य इसके लिए अपनी
सहमति देंगे. यानी ममता बनर्जी और मुलायम सिंह जैसे नेताओं के विरोध का अंदेशा
पहले से ही था इसलिए विदेशी कंपनियों को अब राज्यों के मुख्यमंत्रियों का दरवाजा
भी दिखा दिया गया है. अगर कोई हिलेरी क्लिंटन कोलकाता जा सकती है तो आनेवाले दिनों
में खुदरा कंपनियों के लॉबिस्ट अब राज्य राज्य दौड़ेंगे और अपने प्रवेश का रास्ता
साफ करेंगे. निश्चित रूप से यह राजनीतिक चतुराई भरा फैसला है जिसमें राजनीतिक
बयानबाजी और विरोध प्रदर्शन तो होगा लेकिन राज्यों की सहमति को सर्वाेपरि बताते
हुए उसने विदेशी कंपनियों और विदेशी मीडिया की नजर में अपने आपको हीरो भी साबित कर
दिया और राज्यों तथा राजनीतिक दलों को जवाब देने का एक सेफ गलियारा भी छोड़ रखा है.
और आखिर में, सबसे बड़ी
राजनीतिक राहतरू कोल घोटाले में बवाल अब खुदरा कारोबार की ओर मुड़ जाएगा. इसलिए
विदेशी मीडिया मनमोहन में मोजो खोज रही है और उनके फैसले को मुखर बता रही है तो
इसमें गलत क्या है?
मीडिया के औद्योगिक
घराने इसे मनमोहन सिंह का बिग बैंग डिसीजन बताने में जुट गये हैं. इस बिग बैंग
डिसीजन में आखिर कौन हवा में उड़ेगा यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इतना तय है कि
मनमोहन सिंह का कुछ नहीं बिगड़ेगा. पीएम पद से हटने के बाद जो छवि उन्हें चाहिए, वह उन्होंने हासिल
करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. मनमोहन सिंह के इन मुखर फैसलों के बिग बैंग में
कांग्रेस ही फट जाए तो भी मनमोहन सिंह को भला क्यों चिंता होनी चाहिए? न तो उन्हें पार्टी
चलानी है और न ही लोकतंत्र की राजनीति करनी है. हर हाल में उन्हें अमेरिका और
अंग्रेजी मीडिया की नजर में अच्छा साबित होना है, और इस फैसले से वे
दोनों ही लक्ष्य हासिल कर लेगें.
(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)
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