फेरबदल से क्या साफ
हो पाएगी अलीबाबा की छवि!
(लिमटी खरे)
सवा सौ साल पुरानी
और भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली अखिल
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार
द्वारा 2004 के बाद जो
किया है उससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अली बाबा और उनकी टोली को चालीस चोर की
संज्ञा दी जाने लगी है। मनमोहन सिंह की निर्लज्जता के चलते देश को उनके चालीस
चोरों ने दिल खोलकर लूटा। अब 2014 के आम चुनावों के पहले मंत्रीमण्डल में
फेरबदल कर मनमोहन सिंह ने कांग्रेस और केंद्र सरकार की छवि को सुधारने का असफल
प्रयास किया है।
एक समय था जब
केंद्र अथवा प्रदेश सरकार में फेरबदल की सुगबुगाहट के साथ ही लोग कानों में
ट्रांजिस्टर लगा लिया करते थे। लोग फेरबदल या विस्तार का बेसब्री से इंतजार किया
करते थे। इसमें जिन्हें लिया जाता उन्हें वाकई योग्य और जिन्हें निकाला जाता उनका
परफार्मेंस बेहद खराब समझा जाता था। अब तो संचार माध्यम इतने जबर्दस्त हो गए हैं
कि चौबीसों घंटे सब कुछ बस एक क्लिक पर झटके से सामने हाजिर हो जाता है।
मनमोहनी फेरबदल आया
और चला गया पर किसी को कोई प्रतिक्रिया ना आना वाकई अपने आप में अनोखा है। कहते
हैं धीरे धीरे जिस माहौल में आप ढलते जाते हैं आपका मन भी उसी को अंगीकार करने पर
मजबूर हो जाता है। भ्रष्टाचार के साथ भी कमोबेश यही हुआ। याद पड़ता है कि अस्सी के
दशक में जब कार्यालयों में रिश्वत लेने और देने दोनों को अपराध माना जाने वाला
जुमला चस्पा होता था अब वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता।
भ्रष्टाचार इस चरम
पर पहुंच चुका है कि अगर किसी सरकारी कर्मचारी या नेता के पास पच्चीस पचास लाख की
संपत्ति मिलती है तो लोग कहते हैं ‘उंह क्या भ्रष्टाचार किया कुछ भी तो नहीं।‘‘ मध्य प्रदेश के
मुख्ममंत्री शिवराज सिंह चौहान के चार डंपर का मामला उछला। लोगों का कहना था, ‘अरे कुछ भी आरोप
लगाते हैं भला मुख्यमंत्री चार डंपर के लिए गफलत करेगा। अरे जब आरटीओ आफिस में
लकड़ी (भ्रष्टाचार का मूल भाग) कटकर सीधे सीएम को जाता है और बुरादा (भ्रष्टाचार
में मिलने वाली दलाली) बटोरने वाले आरटीओ के चपरासी करोड़पति हैं तो सीएम क्या एकाध
करोड के लिए अपनी नियत खराब करेंगे।‘‘
कहने का तत्पर्य
महज इतना है कि अब भ्रष्टाचार के मायने बदल गए हैं। वे दिन अब लद गए जब कहा जाता
था कि चोर दो रूपए की हो या दो लाख की चोरी ही होती है। अब तो अघोषित तौर पर मान
लिया गया है कि चोरी अगर करोड़ से कम की है तो वह चोरी नहीं है। मीडिया को
प्रजातंत्र का चौथ स्तंभ माना जाता है। माना जाता है कि मीडिया ही प्रजातंत्र के
बाकी स्तंभों को सही काम करने के लिए पाबंद होता है।
हाल ही में देश के
हृदय प्रदेश के जनसंपर्क विभाग के आला अधिकारियों ने काफी नीचे टीआरपी वाली एक वेब
साईट को सरकारी विज्ञापन जारी किया वह भी 15 लाख रूपए का। वेब साईट को किस दर पर
विज्ञापन जारी हुआ?,
यह दर कहां से अनुमोदित या स्वीकृत थी?, क्या प्रदेश में
इससे अधिक टीआरपी वाली वेब साईट नहीं हैं? आदि प्रश्नों के उत्तर आज भी अनुत्तरित ही
हैं। इसका भुगतान भी आनन फानन ही कर दिया गया।
जब मीडिया में ही
दलाल नुमा ठेकेदार और पूंजीपतियों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया हो तो देश का
गर्त में जाना स्वाभाविक ही है। मीडिया मुगलों ने अपने आप को अखबारों या चेनल्स का
प्रधान संपादक बना रखा है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के मीडिया
संस्थानों में ऐसे प्रधान संपादक उंगलियों में गिन जाएंगे जो रोजाना, पखवाड़े, मासिक, त्रैमासिक तौर पर
लिखते हों। अधिकतर तो अपनी घिसी पिटी संपादकीय को 15 अगस्त या 26 जनवरी पर ही
प्रकाशित करवा देते हैं।
बहरहाल, इस बार जो फेरबदल
हुआ उसकी चर्चा हाट बाजारों या गांव की चौपालों में भी नहीं हुई। इससे साफ है कि
आम जनता भी केंद्र सरकार के इस रवैए से पूरी तरह आजिज ही आ चुकी है। सारे देश में
सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स पर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह, उनके मंत्रियों, कांग्रेस अध्यक्ष
श्रीमति सोनिया गांधी, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी, भाजपा अध्यक्ष
नितिन गड़करी सहित समूचे राजनेताओं को जिस कदर कोस रही है, उस मुहिम को जनसेवक
खाल बचाने के लिए प्रायोजित करार अवश्य दे सकते हैं पर असल में एसा है नहीं।
दरअसल, विश्वसनीयता पूरी
तरह खो चुकी केंद्र सरकार और जनसेवक अपनी साख लौटाने के लिए अब नए नए प्रयोग कर
रहे हैं। कांग्रेस और उसके रीढ़विहीन वज़ीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह केंद्रीय
मंत्रीमण्डल में फेरबदल कर जनता का विश्वास जीतने का असफल प्रयास ही कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह की चौकड़ी में आज भी दागी मंत्रियों का समावेश है। जब भी किसी मंत्री
पर आरोपों की बौछार होती है वह इसे विपक्षी साजिश करार दे देता है। रही सही कसर, बिके हुए मीडिया के
दलाल पूरी कर देते हैं।
समाज सेवी अण्णा
हजारे ने जिस तरह हुंकार भरी थी, उस वक्त देश का माहौल देखने लायक था। सड़कों
पर युवाओं और बच्चों की टोलियां देखकर उमर दराज हो चुकी पीढ़ी को स्वतंत्रता
संग्राम की यादें ताजा हो गई होंगी। प्रोढ़ हो रही पीढ़ी जिसने आजादी के उपरांत
अस्सी के दशक तक देशप्रेम से ओतप्रोत चलचित्र और गीत संगीत के बीच अपने आप को पाया, वह यह सोचने पर
अवश्य ही विवश हुई कि क्या वाकई पचास सालों में हम गोरे ब्रितानियों के बजाए काले
देशद्रोही हिन्दुस्तानियों के गुलाम हो गए हैं?
देश की इससे बड़ी
विडम्बना क्या होगी कि देश के सबसे ताकतवर संवैधानिक पद पर बैठे प्रधानमंत्री
डॉ.मनमोहन सिंह को जनता के नाम अलग से संदेश देना पड़ा, और अपनी सफाई पेश
करनी पड़ी। मनमोहन सिंह ने 15 अगस्त के अलावा कभी भी देश की जनता के नाम
संदेश नहीं दिया। एसी कौन सी आफत आन पड़ी कि प्रधानमंत्री को यह कदम उठाना पड़ा? कांग्रेक के टुकड़ों
पर पलने वाले मीडिया ने मनमोहन सिंह के इस संदेश को खूब स्थान देकर सराहा। एक समय
था जब देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बिना किसी सुरक्षा गार्ड के
हजारों लाखों की भीड़ से रूबरू होते थे। आज देश के शासकों यहां तक कि सांसद
विधायकों को ही अपनी ही रियाया से खतरा है।
देखा जाए तो आम
आदमी पर इस फेरबदल का कोई खास असर नहीं पड़ा है। आम जनता ने अब केंद्र की ओर से
अपना ध्यान हटा लिया है। जनता की याददाश्त वाकई कमजोर होती हैै? जनता इस तरह से देश
को खोखला करने के लिए किए गए राजनैतिक भ्रष्टाचार को तो शायद माफ कर दे, पर विपक्ष की
नकारात्मक भूमिका और सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती मंहगाई को जनता शायद ही भूल पाए।
कुल मिलाकर इस फेरबदल से जनता की नजरों में अलीबाबा और उनके चालीस चोरों का ना तो
चेहरा बदलेगा, ना मोहरा
और ना ही चोगा!!
(क्रमशः जारी)
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