भद्दी भाषा वाले कसाई संजय भाई
(संजय तिवारी)
नई दिल्ली (साई)। आमतौर पर देश दुनिया
में यह कहा जाता है कि सामना की भाषा आपत्तिजनक होती है। सामना की भाषा को लेकर
अक्सर बौद्धिक वर्ग में शिकायतें होती रहती हैं लेकिन भाई संजय निरुपम की भाषा ऐसी
कि मुंबई का बौद्धिक समाज ही शर्मसार नहीं होता था, सामनावाले बाल ठाकरे भी थर्रा जाते थे।
अति तो तब हो गई जब सामना के संपादकीय में भाई संजय निरुपम ने बेनजीर का घाघरा
उठाकर उनसे सवाल पूछने की मांग कर डाली थी। कहते हैं तब खुद शिवसेना प्रमुख ने भाई
संजय निरुपम को फोन करके कहा था कि अब ऐसी भाषा जिस अखबार में छपती हो उसका संपादक
रहने का अधिकारी मैं नहीं रह जाता। तू ऐसा कर मेरा नाम निकालकर अब अपने ही नाम से
अखबार चला।
दो दशक पहले बाल ठाकरे की इस आपत्ति के
बाद संजय निरुपम की भाषा कितनी सुधरी इसका गवाह एक बार फिर देश बना है। भाजपा की
नेता स्मृति ईरानी पर भाई संजय निरुपम ने एक टीवी डिबेट में जोर देकर बोल दिया कि
आप तो टीवी पर ठुमके लगाती थीं, अब आप राजनीति पर भी बहस करेंगी? शायद एक बार में स्मृति ईरानी ने नहीं
सुना होगा इसलिए संजय भाई तब तक बोलते रहे जब तक कि टीवी एन्कर ने उन्हें ताकीद
नहीं कर दिया कि संजय जी अपनी भाषा पर ध्यान दें। लेकिन ध्यान देना संजय जी के
स्वभाव का हिस्सा ही कब रहा है जो उस टीवी बहस में ध्यान दे देते? अगर उन्हें ध्यान देना आता ही तो इतना
तो ध्यान रहना ही चाहिए था कि स्मृति ईरानी पर जो फिल्मी होने का आरोप वे लगाकर
नाचनेवाली बता रहे थे, उस फिल्मी दुनिया से खुद संजय निरुपम का कभी कितना गहरा याराना रहा है।
बिहार के रोहतास वाले इन संजय निरुपम ने
तब मुंबई का दर नहीं देखा था जब वे पटना के पाटलीपुत्र टाइम्स में बतौर संवाददाता
काम किया करते थे। यह अखबार जगन्नाथ मिश्रा का अखबार था तो जाहिर है कि इस अखबार
की दशा और दिशा कांग्रेसी ही रही होगी। आज उनके सार्वजनिक जीवन को खंगालने निकले
तो यही पता चलता है कि महान पत्रकार भाई संजय निरुपम ने अपने पत्रकारीय कैरियर की
शुरूआत इंडियन एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता से की थी लेकिन सच्चाई इसके बहुत पीछे से
शुरू होती है। पटना में पढ़ाई के दौरान उन्होंने पत्रकारिता भी की लेकिन बहुत दिनों
तक वे न तो पाटलीपुत्र में रह पाये और न अखबार में काम कर पाये। भाई संजय निरुपम
पत्रकारिता का भविष्य तलाशते हुए दिल्ली आ गये। दिल्ली में आनंद भारती के संपर्कों
की वजह से संघ के मुखपत्र पांचजन्य तक पहुंचने का मौका मिल गया। कायदे से कहा जाए
तो संजय निरुपम ने अपने पत्रकारिता की शुरूआत पांचजन्य से ही की। उस वक्त तरुण
विजय को नहीं लगा होगा कि राजनीति शास्त्र का यह स्नातक राजनीतिक रिपोर्टिंग में
कुछ खास कर सकता है इसलिए उसे फिल्मों और मनोरंजन का पेज भरने की जिम्मेदारी दे दी
गई।
संजय निरुपम राजनीतिक रिपोर्टिंग करने
में भले ही फिसड्डी रहे हों लेकिन राजनीतिक संपर्क बनाने में माहिर आदमी थे। उस
वक्त पांचजन्य के संपादक पद से मुक्त हो चुके भानुप्रताप शुक्ला बंगाली मार्केट के
अपने आवास पर दरबार लगाया करते थे। जल्द ही इस दरबार में संजय निरुपम भी नजर आने
लगे इस प्रार्थनापत्र के साथ कि शुक्ला जी अगर चाहें तो संजय को मुंबई भेज सकते
हैं। वह ऐसे कि प्रभाष जोशी उस वक्त जनसत्ता के मुंबई संस्करण के लिए अच्युतानंद
मिश्र को बतौर संपादक बनाकर भेज रहे थे और अच्युता बाबू की भानू बाबू से गहरी छनती
थी। दोनों ब्राह्मण। दोनों आरएसएस के कैडर। भानू जी संजय की सिफारिश कर भी दी। इस
तरह भानू जी की सिफारिश पर अच्युता जी, संजय जी को लेकर 1988 में मुंबई आ गये
और यहां अपने ही गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था भी कर दी। आखिर अच्युता बाबू को
पत्रकारों के साथ ही इतने बड़े शहर में समर्पित शागिर्द भी चाहिए था जो उनकी देखभाल
कर सके। विभूति शर्मा के साथ मिलकर संजय भाई दोनों काम करते थे। संजय भाई की सेवा
से पंडित अच्युतानंद मिश्र इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें मुंबई जनसत्ता के एक
स्थानीय पेज का इंचार्ज बना दिया।
बस यहीं से संजय भाई की लॉटरी लग गई।
मुंबई की हिन्दी पत्रकारिता में नवभारत टाइम्स के बाद जनसत्ता ही वह अखबार था जो
अंग्रेजी, मराठी और गुजराती भाषियों के इस शहर में अखबार होने का अहसास कराता था।
बहुत सारे छुटभैये नेता, व्यापारी और फिल्मी कैरेक्टर एक कॉलम और दो कॉलम की खबर के लिए अपनी
क्षमता अनुसार सेवा भी करते थे और आदर भी देते थे। फिर भी, ऐसा नहीं है कि संजय निरुपम जनसत्ता में
रहते हुए कोई बहुत लब्धप्रतिष्ठित पत्रकार हो चले थे। अखबार की दुनिया में लोकल
पेज का इन्चार्ज पेज पर कितना भी ताकतवर हो पत्रकारिता में बस ऐसे ही होता है।
संजय भाई के लिए यहां भी मुश्किल तब बढ़नी शुरू हो गई जब अच्युता बाबू मुंबई से कूच
कर गये और राहुल देव के हाथ में कमान आ गई। राहुल देव को यह निरूपम कत्तई पसंद
नहीं था। जाहिर है जब संपादक को अपने अधीनस्थ कोई कर्मचारी नहीं होता तो उसके साथ
क्या क्या गुजरती है। वही सब कुछ अब संजय निरुपम के साथ भी होने लगा था। उन्हें
स्थानीय पेज से उठाकर जनसत्ता की सबरंग पत्रिका में समाहित कर दिया जिसे धीरेन्द्र
अस्थाना संभाल रहे थे।
इस बीच संजय भाई के जीवन में एक बड़ा मोड़
आ चुका था। उनकी मुलाकात गीता वैद्य से हो चुकी थी। गीता वैद्य अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद की कार्यकर्ता थी और इस समय प्रदेश भाजपा में नेता विपक्ष विनोद
तावड़े के साथ मिलकर काम करती थीं जो कि खुद विद्यार्थी परिषद का काम काज संभालते
थे। गीता अक्सर प्रेस रिलीज लेकर जनसत्ता दफ्तर भी आती थीं जहां उनकी मुलाकात संजय
निरूपम से हुई। गीता वैद्य से संजय की यह मुलाकात धीरे धीरे प्यार और फिर शादी में
तब्दील हो गई। अब तक संजय निरूपम अकेले थे और मुंबई के दूरगामी उपनगर भायंदर में
रहते थे। हालांकि आज वे उसी उत्तर मुंबई से सांसद हैं जहां भायंदर एक विधानसभा है
लेकिन तब और अब में बहुत फर्क है। जनसत्ता में नेतृत्व बदला तो इसका सीधा असर संजय
भाई की सेहत पर पड़ा। संजय भाई की संभावित पत्नी गीता वैद्य उन दिनों अन्य दफ्तरों
की तरह लोकप्रभा के दफ्तर वह अपनी प्रेस विज्ञप्तियां पहुंचाने जाती थीं। यहां
उनकी मुलाकात संजय राउत से होती थी जो उस वक्त लोकप्रभा में बतौर उपसंपादक काम कर
रहे थे। संजय राउत से मुलाकातों में मराठी मूल की गीता वैद्य ने अपना दुख साझा
किया कि जनसत्ता से बाहर आने का कोई रास्ता बताइये। खुद संजय राउत क्या रास्ता
बताते अगर वे 92 में सामना के कार्यकारी संपादक न बन गये होते।
राउत के कार्यकारी संपादक बनते ही गीता
वैद्य और संजय निरूपम दोनों ही इस बात पर लगभग अड़ गये थे कि किसी भी तरह संजय
निरूपम के लिए सामना में कोई जगह तैयार की जाए। उस वक्त हिन्दी सामना अखबार प्रकाशित
नहीं होता था इसलिए संजय राउत के सुझाव पर एक पत्रिका का पंजीकरण करवाया गया जिसका
नाम था अग्निपथ। उन दिनों अमिताभ की फिल्म अग्निपथ से खुद बालासाहेब बहुत प्रभावित
थे इसलिए हिन्दी में पत्रिका छापने के लिए तैयार हो गये। और संजय राउत थे जो ये
मानते थे कि संजय निरूपम अभी सबरंग में काम कर रहे हैं इसलिए पत्रिका का काम संभाल
लेंगे। लेकिन वह पत्रिका न कभी छप पाई और न ही संजय निरूपम को वह मौका मिल पाया
जिसके लिए वे उठक बैठक कर रहे थे। मौका दिया मुंबई के दंगों ने। मुंबई दंगों के
बाद बाल ठाकरे ने तय किया कि मुंबई में हिन्दीभाषी हिन्दुओं के लिए हिन्दी अखबार
प्रकाशित किया जाएगा और उस वक्त शिवसेना की टोली में हिन्दी पत्रकारिता का जो मानव
संसाधन उपलब्ध था उसमें संजय निरुपम ही एकमात्र उपलब्ध थे। संजय राउत की सलाह पर
संजय निरूपम को कार्यकारी संपादक की जिम्मेदारी दे दी गई। इस वक्त तक संजय निरूपम
की बाल ठाकरे से भेंट नहीं कराई गई थी क्योंकि इस बात की पूरी आशंका थी कि
बालासाहेब इनकी प्रतिभा पर शक जाहिर कर सकते हैं इसलिए संजय निरूपम की पहली
मुलाकात बाल ठाकरे से तब हुई जब प्रेम शुक्ल को सामना में शामिल करवा लिया गया, क्योंकि तय यह हुआ कि बालासाहेब के
सवालों का जवाब संजय निरुपम नहीं बल्कि प्रेम शुक्ल देंगे।
लेकिन कार्यकारी संपादक बनते ही उस वक्त
भी संजय निरुपम की वह भाषा सामने आ गई जिसे लेकर आज हम चिंतित हो रहे हैं। कहते
हैं अखबार निकलने के थोड़े ही दिनों के भीतर राहुल देव सहित मुंबई के 108
प्रतिष्ठित लोगों ने बाल ठाकरे को एक पत्र लिखा था और कहा था कि संजय निरूपम की
भाषा इतनी अश्लील और अपमानजनक है कि उसे पत्रकारिता तो क्या गुप्त बातचीत में भी
इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फिर भला उनको संपादक बनाये रखने का क्या तुक है? लेकिन तुक सिर्फ इतना था कि संजय निरूपम
का कोई विकल्प सामने नहीं था, और अगर था तो संजय निरूपम उसे विकल्प
बनने नहीं देना चाहते थे।
लेकिन सामना के कार्यकारी संपादक रहते
हुए भी संजय निरूपम ने फिल्मों में अपनी जोर आजमाइश नहीं छोड़ी थी। जनसत्ता में
रहते हुए जुड़वा भाई अंजय के साथ मिलकर मॉडलिंग का धंधा वे चला ही चुके थे और अब
सामना में रहते हुए उन्होंने फिल्मों की स्क्रिप्टिंग, पीआर आदि में हाथ आजमाने लगे थे। फिल्मी
दुनिया में उत्तर भारतीय कलाकारों के साथ अपने संबंधों के कारण उन्होंने अच्छी
खासी पैठ बना ली थी और शत्रुघ्न सिन्हा या फिर देवानंद जैसे कलाकारों के आस पास
आते जाते रहते थे। उन दिनों देवानंद की एक फिल्म आई थी रिटर्न आफ ज्वेलथीप। उस
फिल्म की स्क्रिप्ट भी संजय निरूपम ने ही लिखी थी। इसके अलावा एटीएन चौनल पर वे एक
फिल्मी अदालत भी चलाते थे जिसका नाम था फिल्मी पंचायत। संजय निरूपम इस फिल्मी
पंचायत के सरपंच होते थे। लेकिन कहीं भी बहुत सफल नहीं हो पा रहे थे इसलिए मित्रों
की सलाह पर राजनीति की ओर कदम आगे बढ़ा दिया और शिवसेना से पहली बार खेरवाड़ी से
विधानसभा का टिकट मांग लिया जो नहीं मिला।
लेकिन राजनीति में दावा भी बहुत कुछ दे
जाता है। संजय निरूपम के साथ यही हुआ। विधानसभा का टिकट मांगनेवाले संजय निरूपम को
उत्तर प्रदेश शिवसेना का संपर्क प्रमुख नियुक्त कर दिया गया और भाग्य से राज्यसभा
की सीट भी मिल गई। देखते ही देखते एक दशक के भीतर ही संजय निरूपम एक कद्दावर
पर्सनालटी के रूप में उभरकर सामने आ गये। 1988 में कहां वे एक अदद नौकरी की तलाश
में मुंबई गये थे और 1996 में वे शिवसेना के सांसद बन गये थे। दोपहर का सामना के
संपादक तो खैर वे थे ही। लेकिन इतना सब होते हुए भी उनकी दो बातों पर लगाम नहीं लग
पाई। एक तो उनकी जुबान और दूसरा उनका धंधा। फिल्मों का धंधा तो अब संजय निरूपम
नहीं करते थे लेकिन अब उगाही के धंधे में उतर गये थे। कहते हैं 2005 में उनकी एक
सीडी बालासाहेब के सामने पेश कर दी गई थी जिसमें धन उगाही के सबूत थे। इसका
खामियाजा यह हुआ कि संजय निरूपम की सांसदी भी गई और अखबार के संपादकीय प्रभार भी।
खैर शिवसेना का साथ छूटने के बाद संजय
निरूपम ने कांग्रेस का साथ पकड़ लिया और आज वे उत्तर मुंबई से सांसद हैं। कहते हैं
संजय भाई ने भद्दी भाषा से भले ही हमेशा सबको परेशान किया हो लेकिन अपनी राजनीति
चमकाने के साथ ही उन्होंने अपना विस्तृत आर्थिक साम्राज्य भी विकसित किया है। इस
काम में उनका जुड़वा भाई अंजय निरूपम हमेशा उनके साथ होता है। मुंबई की झोपड़पट्टी
के पुनर्वास स्कीम जिसे वहां की भाषा में एसआरए डेवलपमेन्ट कहा जाता है उसमें संजय
भाई का अच्छा खासा दखल है। इधर दिल्ली की संसद में जब तब उनके बोल सुनाई दे ही
जाते हैं जिसके सुर के तार इतने बेसुरे होते हैं कि जिन्हें सुनकर कोई भी कह उठता
है कि अरे यह संजय निरूपम बोल रहा है क्या? फिर अगर उन्होंने अपनी इसी भाषा का
इस्तेमाल करते हुए स्मृति ईरानी की इज्जत उतार ली तो क्या गुनाह किया? (लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)
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