महानता के बरगद तले भारतीय रंगमंच
(अश्विनी कुमार पंकज)
सामंती और औपनिवेशिक गुलामी से भारतीय
समाज अभी भी उबरा नहीं है। बल्कि ग्लोबलाइजेशन के बाद उसमें और गहरे धंस जाने की
होड़ लगी है। भारत के स्त्री, किसान-मजदूर और दलित-वंचित उत्पीड़ित
राष्ट्रीयताओं के सृजन संघर्ष को साहित्य, कला, रंगमंच में अंकन का ऐतिहासिक सवाल हो या
फिर आर्थिक-सामाजिक क्षेत्रों में उनकी दावेदारी की बात हो, चाहे शिक्षा, संस्कृति, इतिहास, राजनीति, आजीविका का मंच हो, सामंती और औपनिवेशिक जकड़न ढीली होने की
बजाय और मजबूत होती ही दिख रही है। अंधश्रद्धा व आस्था का बाजार इस कदर हावी है कि
आप किसी ‘महान’ पर उंगली नहीं उठा सकते, मिथकों और इतिहास का पुनर्पाठ नहीं कर
सकते। लिंगगत, नस्लीय, जातीय अमानवीय धार्मिक परंपराओं पर सवाल नहीं कर सकते। गिरीश कारनाड
जैसे संजीदा नाटककार द्वारा टैगोर पर दिए गए बयान कि ‘वे एक महान कवि तो हैं पर दोयम दर्जे के
नाटककार है’ पर जिस तरह से प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उसका एक बड़ा संकेत यही है कि हम
सामंती-औपनिवेशिक गुलाम मानसिकता से निकलने को तैयार नहीं हैं। टैगोर पर इसलिए
सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि वे ‘महान’ हैं।
साहित्यिक क्षेत्र में इस तरह के वक्तव्यों, विचारों का विवाद नया नहीं है, पर यह पहली बार हुआ है कि किसी एक ही
बयान ने अभिव्यक्ति की दो बड़ी विधाओं के व्यापक परिधि को एक साथ अतिक्रमित किया
है। टैगोर साहित्य भी रचते हैं, नाटककार भी हैं, गायक और संगीतज्ञ भी हैं। कुल मिलाकर एक
व्यापक सांस्कृतिक दायरा हैं टैगोर। वह भी ‘भारतीय नवजागरण के अग्रदूत’ बंगाल के नागरिक। जाहिर है, कारनाड के बयान की चोटिलता भी बड़े स्तर
पर महसूस करेंगे लोग। लेकिन कारनाड का बयान जिस विमर्श की मांग कर रहा है, प्रतिक्रियाएं और जोर उस पर कम, महानता व कारनाड की नीयत पर ज्यादा केन्द्रित
हैं। यह महानतावाद सामंती व औपनिवेशिक मानसिकता है और इसी आलोक में कारनाड के बयान
पर विमर्श जरूरी है।
औपनिवेशिक गुलामी का प्रमुख लक्षण है
सत्ता द्वारा स्थापित प्रतीकों को आंख मंदकर भक्तिभाव से स्वीकार कर लेना। अगर हम
गोर्की जैसे विदेशी शख्सीयत की बजाय भारतेंदु, फुले, भिखारी ठाकुर, स्वामी अछूतानंद, प्रेमचंद, निराला, धूमिल, रघुनाथ मुर्मू जैसों की ही बात करें तो
क्या इनकी लोकप्रियता नोबल या ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कारों की देन है? जाहिर है कि नहीं। आप जानते हैं कि
शेक्सपीयर जैसे साहित्यकारों की विश्वव्यापी लोकप्रियता ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों
ने गढ़ी है। वे अपनी अंग्रेजी भाषा के साथ शेक्सपीयर को अपने कॉलोनी देशों में नहीं
ले जाते तो इन्हें कोई भी वैसे ही नहीं जानता जैसे कि हम 19वीं सदी के या इसके
पूर्व के अन्य लेखकों को नहीं जानते। शायद वे शेक्सपीयर से महान भी हों।
इसी तरह यह मानते हुए भी कि टैगोर
निःसंदेह महान रचनाकार हैं उनकी व्यापक स्वीकार्यता में नोबल की प्रभावी भूमिका से
इंकार नहीं किया जा सकता। प्रेमचंद और टैगोर के सांस्कृतिक विस्तार के दो विपरीत
छोर हैं। एक औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ शासकवर्ग के तमाम अवरोधों बंदिशों के बीच
व्यापकता ग्रहण करता है तो दूसरा उसके पुरस्कार के जरिए। लोकप्रियता के इस आयाम
में प्रभुसत्ता के स्वीकृति की औपनिवेशिक मानसिकता रही है, तब और आज के अनुभवों से तो ऐसा ही मालूम
होता है। व्यापक स्तर पर गोष्ठियां, विमर्श, स्मृतियां, सम्मान, श्रद्धांजलियां उन्हीं लोगों को समर्पित
होती हैं जो बड़े सरकारी या ज्ञानपीठ-नोबल जैसे लखटकिया गैर-सरकारी
पुरस्कारों-सम्मानों से अलंकृत हुए रहते हैं, महानगरों में रहते हैं, या फिर अपनी रचनाओं से महानगरों में
उपस्थित हुए रहते हैं। भाषा नहीं जानने के कारण हम गैरहिंदी राज्यों के लोगों को
नहीं जानते हैं, यह एक अलग मुद्दा है। परंतु हिंदी क्षेत्र के ही लोगों के साथ जब यह
लगातार हो रहा हो, मामला बहुत संजीदा हो जाता है। जबकि साहित्य, कला, रंगमंच के सभी क्षेत्रों में हम और आप
सभी शायद ऐसे बहुत लोगों को शायद जानते हों जो रचना के स्तर पर किसी भी ‘महान’ रचनाकार से कमतर नहीं हैं। पर
पुरस्कार-सम्मान व महानगरों में वे नहीं हैं इसलिए उनके रचने-जीने-मरने से हमारा
कोई सरोकार नहीं है।
भाषाई विभिन्नता भी इसमें एक कारक है।
पर इसके बरक्स जब हम यह देखते हैं कि अंग्रेजी के चश्मे से दुनिया को देखने-समझने
में हमारी जितनी दिलचस्पी है, उतना लगाव हम अपने आसपास, अगल-बगल के अन्य भारतीय भाषिक समाज के
प्रति बिल्कुल नहीं रखते है। उत्तर-मध्य भारत के विशाल हिंदी पट्टी में हिंदी किसी
की मातृभाषा नहीं है। स्पष्ट है कि हिंदी क्षेत्र अनेको देशज बोलियों व भाषाओं का
समुच्चय है। फिर यह सांस्कृतिक समुच्चय हिंदी के सृजनात्मक संसार में क्यों नहीं
दिखता? उनको रोजाना देखते हुए भी हिंदी विश्व के आंख-कान क्यों बंद हैं? आसपड़ोस के स्वयं से इतर भाषाई समाज का
घर-गांव हम नहीं देख रहे परंतु फ्रांस, अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि न जाकर भी दिन-रात उसी ओर
नजर गड़ाए हुए हैं। यह और कुछ नहीं प्रभुसत्ता के मापदंडों व उनके मूल्यों पर खरे
उतरने, उनकी स्वीकृतियां पाने और वैश्विक (सामंाज्य विस्तार) आकांक्षाओं की ही
औपनिवेशिक मानसिकता है।
साहित्य और रंगमंच से हमारा रिश्ता रहा
है और इस परिचय के आधार पर कह सकता हूं कि ‘महानता’ के मापदंड औपनिवेशिक हैं। जैसे आजादी
(सत्ता हस्तांतरण) के बाद शासन, प्रशासन, विधि व्यवस्था, शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में औपनिवेशिक
नीतियों को जस का तस लागू कर दिया गया और जब-जब इनमें से किसी केे खिलाफ व्यापक
जनाक्रोश सामने आया, कुछ लीपा-पोती कर दी गई। इसी तरह सृजनशील विधाओं में भी सामंती और
पूंजीवादी मूल्यों को ही कुछ ‘भारतीय’ किस्म का रंगरोगन कर औपनिवेशिक गुलामी
को स्वीकार कर लिया गया। सांस्कृतिक स्तर पर यह सब बहुत ही सुनियोजित ढंग से हुआ
और शासक वर्ग ने इसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भरपूर सहयोग दिया। सत्ता हस्तांतरण के
बाद नये भारत के निर्माण व एकीकरण की बुनियाद ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ ही रहा। भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता को
संविधान में स्वायत्तता और अधिकार प्रदत्त करने की संकल्पना के बावजूद ‘संस्कृतिकरण’ की नीति जबरन थोप दी गई। परिणाम हमारे
सामने हैं। सत्ता हस्तांतरण के छह दशकों बाद भी भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता के
समर्थन, संरक्षण व विस्तार का मसला महज तात्कालिक राजनीतिक फायदे-नुकसान का
मुद्दा है। भारत की चारों भौगोलिक व राजनीतिक दिशाएं - उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम - एकदूसरे से अनजान हैं और
राष्ट्रीयता व आत्मनिर्णय के अधिकार के सवाल पर राज्यसत्ता से मुठभेड़ कर रही हैं।
महान लोगों और उनकी महानता पर वही उंगली
उठा सकता है जो सामंती व औपनिवेशिक सोच की दासता से मुक्त है। गिरीश कारनाड का
वक्तव्य कम से ऐसी हिम्मत करता है। वे कहां बोल रहे थे, कैसे बोल रहे थे, कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे आदि
सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने क्या सवाल रखा। कारनाड ने
स्पष्ट कहा कि ‘टैगोर जितने महान कवि हैं उतने ही महान नाटककार नहीं हैं। उनके नाटक
दोयम दर्जें के हैं। उनके लिखे नाटकों में से कुछ ही नाटक पर काम हुआ है। बीते 50
साल में भारत ने बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर जैसे तमाम
नाटककार पैदा किए हैं। वे टैगोर से कहीं बेहतर थे। चूंकि टैगोर अभिजात और कुलीन
वर्ग से संबंधित थे इसलिए वो गरीबों के चरित्र को समझ नहीं पाते थे। टैगोर के
नाटकों में गरीब आदमी सिर्फ कार्ड-बोर्ड कैरेक्टर की तरह था जिसमें भावना और वेदना
की कमी थी। उनके नाटक असरदार नहीं थे और बंगाली थियेटर पर भी टैगोर के नाटकों का
ज्यादा प्रभाव नहीं दिखाई देता। सिर्फ नोबल पुरस्कार मिल जाने से ये नहीं मान लेना
चाहिए की वो शख्स हर मायने में अद्भुत होगा।’ ध्यान रहे कि कारनाड इसे पांच वर्ष
पूर्व अपनी पुस्तक में भी लिख चुके हैं। जाहिर है कारनाड उनकी महानता से अभिभूत या
आक्रांत हुए बिना उनके नाट्य साहित्य पर विमर्श की मांग कर रहे हैं। टैगोर के
नाटकों में गरीबों के चित्रण का सवाल उठाते हुए यह बात कह रहे हैं। पर उनके
वक्तव्य को वर्गीय दृष्टि की बजाय ‘नोबल प्राप्त महानता’ के सामंती व औपनिवेशिक दृष्टि से ही
देखा जा रहा है।
कारनाड के बयान पर आई कुछ प्रतिक्रियाओं
से इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है। दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित
रंगमंच और फिल्म के वरिष्ठ अभिनेता सौमित्रो चटर्जी कहते हैं - ‘एक नोबल प्राप्त साहित्यकार को दोयम
दर्जें का कहना शर्मनाक है।’ बंगाल के जानेमाने रंगकर्मी देवाशीष राय
चौधरी जिन्होंने टैगोर के कई नाटकों का निर्देशन किया है, की प्रतिक्रिया है - ‘कारनाड बंगाली नहीं हैं और बांग्ला नहीं
जानते हैं इसलिए शायद उन्होंने टैगोर के सारे नाटक नहीं पढ़े हैं। उनके वक्तव्य को
गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए।’ प्रमुख बांगला रंगकर्मी विभाष चक्रवर्ती
ने कहा - ‘यह उनके निजी विचार हैं और मैं उनसे सहमत नहीं हंू। उनकी राय को समूचे
रंगजगत की राय नहीं माननी चाहिए।’ सीपीआई के नेता गुरुदास दासगुप्ता के अनुसार - ‘यह हमारे लिए बेहद दुखद है कि एक आदमी
जिसे हम उसके ज्ञान, संस्कृति और नाटक के लिए पसंद करते हैं, उसने बदकिस्मती से इस तरह का बयान दिया
है। यह जनता की अभिव्यक्ति को नहीं समझ पाने के कारण है। सौ साल से भी ज्यादा समय
से जो लोकप्रिय है उसके लेखन को स्तरहीन कहना सचमुच दुखद है।’ (पीटीआई न्यूज, टाईम्स ऑफ इंडिया, 9 नवंबर 2012) दिल्ली बेस्ड टैगोर
विशेषज्ञ प्रो। आनंद लाल की राय है - ‘गिरीश कारनाड जिस स्तर पर हैं, उस स्तर से ऐसी बात कहना ठीक नहीं है।
हालांकि वे पिछले 20 वर्षों से ऐसा कह रहे हैं पर एक खास मुकाम पर पहुंचकर उन्हें
इस तरह का गैरऐतिहासिक बयान देकर लोगों को गुमराह नहीं करना चाहिए।’ (सीएनएन-आईबीएन लाइव वेबसाइट, 10 नवंबर 2012)
ये प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि कारनाड
के बयान को महज क्षेत्रीय और नोबल महानता के चश्मे से देख रहे हैं लोग। जाति
आधारित सामाजिक संरचना और वर्ग विभाजित समाज में स्त्री व गैर-स्त्री, दलित व गैर-दलित और आदिवासी व
गैर-आदिवासी घटकों के दुख, क्षोभ एवं संघर्ष के नितांत विशिष्ट अनुभव और अभिव्यक्तियां हैं।
सामान्य कमजोर, दुखी, गरीब चरित्रों के रूप में स्त्री, दलित और आदिवासी समाजों के विशिष्ट
सवालों को नहीं संबोधित किया जा सकता। लिहाजा रंगमंच की दुनिया को ऐसे विमर्शों का
स्वागत करना चाहिए। क्योंकि कारनाड वर्ग विभाजित समाज में नाटक और रंगकर्म की
प्रवृति पर बोल रहे हैं। टैगोर की 150वीं जयंती के अवसर पर महानता के गुणगान से
अगर हमें ऐतराज नहीं है फिर हम उनपर और उनके बहाने भारतीय नाट्य पर विमर्श से
क्यों कतरा रहे हैं? क्या नाटक और रंगमंच हमारी सदी के सबसे प्रमुख विमर्श ‘सामाजिक न्याय’ से बाहर रहना चाहिए? इस सवाल और विमर्श को आगे बढ़ाना चाहिए।
विशेषकर हिंदी रंगजगत को। क्योंकि उसका प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा
व्यापक है। लेकिन हिंदी रंगजगत की चुप्पी बता रही है कि ‘महान’ बनने की लालसा ज्यादा है, सामंती व औपनिवेशिक दासता से मुक्ति की
छटपटाहट कम। (साई फीचर्स)
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