फिर मजबूरी का राग
अलापा मनमोहन ने
(शरद खरे)
नई दिल्ली (साई)।
कांग्रेस के नेहरू गांधी परिवार से इतर वजीरे आज़म डॉ.मनमोहन सिंह ने लगातार नौवीं मर्तबा
लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा लहराया है। इस बार उनसे अनेक अपेक्षाएं थीं कि वे
देश के नाम अपने संबोधन में देश को कुछ नया देंगे, पर सदा की तरह इस
बार भी उन्होंने अपने संबोधन में अपनी मजबूरियों को ही प्राथमिकता के आधार पर बखान
किया।
15 अगस्त को जब मनमोहन सिंह देश के नाम संदेश
पढ़ रहे थे तब उन्होंने अपने 34 मिनट के भाषण में देश की समस्याओं के प्रति
पूरी तरह से बेरूखी ही अपनाई। हालांकि इस भाषण में उन्होंने यह संकेत देने की
कोशिश जरूर की कि वे हालात के लिए अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए तमाम
राजनीतिक दल भी उतने ही दोषी हैं।
माना जा रहा था कि
असम में हुए दंगे और इसके बाद मुंबई में हुई हिंसा के बाद इस मसले पर अपेक्षा थी
कि प्रधानमंत्री कुछ ठोस बोलेंगे लेकिन इस मुद्दे पर उन्होंने बोलने में औपचारिकता
भर निभाई। इस कारण वे विपक्ष और खासकर बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी के निशाने पर आए।
इसके अलावा कालेधन
के मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने एक भी शब्द नहीं बोला। वह भी तब जब महज एक हफ्ते
पहले पीएमओ की ओर से कालेधन पर विस्तृत रिपोर्ट जारी की गई थी, वहीं रामदेव ने
आंदोलन छेड़ रखा है। प्रधानमंत्री ने रिटेल में एफडीआई जैसे मुद्दे पर कोई भी संकेत
नहीं दिए। दरअसल उन्होंने उन मुद्दों को बिल्कुल नहीं छुआ, जिन पर गठबंधन के
अंदर ही एकमत नहीं है।
प्रधानमंत्री ने
सरकार की सबसे लंबित महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा योजना पर भी कुछ नहीं बोला। जबकि
कहा जा रहा है कि मनरेगा के बाद यह सरकार की सबसे पसंदीदा योजनाओं में एक है।
कैबिनेट से इसे पास भी किया जा चुका है, लेकिन खुद सरकार के अंदर इस मुद्दे पर विरोध
है।
प्रधानमंत्री डॉ.
मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर कई क्षेत्रों में
सफलताएं मिलने का तो दावा किया, लेकिन वह देश के सामने सुरक्षा की तरह मुंह
बाये खड़े मुद्दों पर मौन साध गए। उन्होंने मात्र 17 लाइनों में देश की
आंतरिक सुरक्षा का पूरा ब्यौरा दे दिया। उनके भाषण में असम का तो जिक्र था, लेकिन मुंबई गायब
था। सांप्रदायिकता पर एक शब्द भी वह नहीं बोले।
प्रधानमंत्री ने
माना कि आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना है। उन्होंने
सांप्रदायिक सद्भाव को हर कीमत पर बनाए रखने पर जोर दिया, लेकिन देश के
विभिन्न राज्यों में बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसा और धर्म के नाम पर बढ़ रही अवांछनीय
गतिविधियों पर एक शब्द भी नहीं कहा।
उन्होंने कहा कि उनकी
सरकार असम की घटनाओं की वजहों को समझने की कोशिश करेगी, लेकिन सीमा पर
घुसपैठ रोकने या फिर घुसपैठियों की पहचान के मुद्दे पर वह मौन ही रहे। न ही वह असम
और म्यांमार की घटनाओं के विरोध में मुंबई में हुई हिंसा पर कुछ बोले।
आतंकवाद और जिहादी
हमलों का भी उल्लेख प्रधानमंत्री के भाषण में सिर्फ नाममात्र के लिए था। पिछले
दिनों पुणे में हुए बम विस्फोटों की बात तो उन्होंने की, लेकिन जम्मू-कश्मीर
में जिहादी संगठनों द्वारा जारी किए जा रहे फतवों और सीमा पर घुसपैठ की कोशिशों का
जिक्र उन्होंने नहीं किया। प्रतिबंधित संगठनों से जुड़े लोगों की ओर से नए संगठन
खड़े किए जाने और छोटे-छोटे मुद्दों पर लोगों को भड़काने के बारे में भी
प्रधानमंत्री कुछ नहीं बोले, जबकि वास्तविकता यह है कि आज देश को सबसे
ज्यादा खतरा ऐसी मुहिम से ही है।
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