वास्तु की नजर में
कोणार्क का सूर्य मंदिर
(पंडित दयानन्द शास्त्री)
नई दिल्ली (साई)।
भारत में अनेक धर्म एवं जातियां हैं तथा वे सभी किसी न किसी शक्ति की पूजा आराधना
करते हैं। सबकी विधियां अलग हैं परंतु सभी एक ऐसे एकांत स्थान पर आराधना करते हैं, जहां पूर्ण रूप से
ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र
हो पाए। इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत
के प्राचीन मंदिरों पर नजर डालें तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशिल्प बहुत अधिक
सुदृढ़ था। वहां भक्तों को आज भी आत्मिक शांति प्राप्त होती है। वैष्णों देवी मंदिर, ब्रदीविशाल जी का
मंदिर, तिरुपति
बालाजी का मंदिर,
नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी का मंदिर व उज्जैन स्थित
भगवान महाकाल का मंदिर कुछ ऐसे मंदिर हैं जिनकी ख्याति व मान्यता दूर दूर तक, यहां तक कि विदेशों
में भी, है। ये सभी
मंदिर वास्तु नियमानुसार बने हैं तथा प्राचीनकाल से वैसी ही स्थिति में खड़े हैं।
इसका विमीण 1250 ए. डी. में पूर्वी
गंगा राजा नरसिंह देव - 1 (ए. डी. 1238 - 64) के कार्यकाल में किया गया था।
राजा के आदेश
अनुसार बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों को तैयार किया गया व राजा ने इसे बनवाने
के लिए खूब धन लगाया परंतु निर्माण उचित प्रकार से नहीं हो पा रहा था व भव्यता का
अभाव था तब राजा ने कडे शब्दों में एक निश्चित तिथि तक मंदिर का निर्माण कार्य
संपूर्ण करने का आदेश दिया. मंदिर का कार्य बिसु महाराणा के निर्देश अनुसार हो रहा
था और उसके वास्तुकारों ने पूर्ण रूप से अपना सारा कौशल इस निर्माण मे लगा दिया था
परंतु कोई हल नजर न आया. बिसु महाराणा का पुत्र धर्म पाद जो केवल बारह वर्ष का था
मंदिर के कार्य हेतु आगे आया उसे निर्माण के बारे में ज्यादा व्यवहारिक ज्ञान तो
नही था परंतु उसे मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान था और उसने इस कार्य
को करना चाहा. उसने तब तक के हुए निर्माण कार्य का गहन निरीक्षण किया तथा मंदिर के
अंतिम केन्द्रीय शिला लगाने की समस्या को दूर कर दिखाया व सभी को आश्चर्यचकित कर
दिया किंतु इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव मिला. कहते हैं कि
धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ के लिए अपनी जान दी. यह सोचकर कि उसके इस कार्य
से सारे स्थपतियों की अपकीर्ति होगी व राजा उन पर क्रोधीत होगा ओर उन्हे सजा
मिलेगी उसने मंदिर के शिखर से कूदकर आत्महत्या कर ली.
एक अन्य स्थानीय
अनुश्रुति है कि मंदिर के शिखर में कुंभर पाथर नामक चुंबकीय शक्ति से युक्त पत्थर
लगा था और उसके प्रभाव स्वरूप इसके निकट से समुद्र में जानेवाले जहाज व नौकाएँ
स्वयं ही खिंची चली आती थीं व टकराकर नष्ट हो जाती थीं. इसके अतिरिक्त कहा जाता है
कि काला पहाड़ नामक प्रसिद्ध आक्रमणकारी ने इस मंदिर को ध्वस्त किया था किंतु परन्तु इस घटना का कोई एतिहासिक विवरण
नहीं मिलता.
इसमें कोणार्क
सूर्य मंदिर के दोनों और 12 पहियों की दो कतारें है। इनके बारे में कुछ लोगों का मत है
कि 24 पहिए एक
दिन में 24 घण्घ्टों
का प्रतीक है, जबकि
अन्घ्य का कहना है कि ये 12 माह का प्रतीक हैं। यहां स्थित सात अश्घ्व सप्घ्ताह के सात
दिन दर्शाते हैं। समुद्री यात्रा करने वाले लोग एक समय इसे ब्घ्लैक पगोडा कहते थे, क्घ्योंकि ऐसा माना
जाता है कि यह जहाज़ों को किनारे की ओर आकर्षित करता था और उनका नाश कर देता
था।
सूर्य मंदिर
कोणार्क
कोणार्क का सूर्य
मंदिर पुरी के पवित्र शहर के पास पूर्वी ओडिशा राज्घ्य में स्थित है और यह सूर्य
देवता को समर्पित है। यह सूर्य देवता के रथ के आकार में बना एक भव्घ्य भवन है; इसके 24 पहिए सांकेतिक
डिजाइनों से सज्जित हैं और इसे छरू अश्घ्वखींच रहे हैं। यह ओडिशा की मध्घ्यकालीन
वास्घ्तुकला का अनोखा नमूना है और भारत का सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण तीर्थ है।
यह जगन्नाथ पुरी से
36 किलोमीटर
दूर समुद्र के निकट बना हुआ है। कभी यह सूर्य उपासना का प्रधान पीठ हुआ करता था।
इसका निर्माण सन् 1200 ई. में
उत्कल नरेश लांगुला नरसिंह देव जी ने किया था। इसे 12 वर्ष में लगभग 1 हजार से अधिक
शिल्पियों ने कड़ी मेहनत से तैयार किया था। इस मंदिर की नक्काशी, कारीगरी एवं खुदाई
का कौशल देखकर प्रत्येक व्यक्ति दंग रह जाता है। इस मंदिर का निर्माण एक रथ आकृति
में करवाया गया था। इसमें 24 पहिए हैं। प्रत्येक पहिए में 8 आरा हैं और इस
पहिए का व्यास लगभग 10 फुट है। सभी पहियों का शिल्प उत्कृष्ट कला का नमूना है। सभी
पहिए एक लाट से जुड़े हुए हैं। दोनों तरफ 12-12 पहिए हैं।
स्थापत्य कला के
रूप में यह विश्व की अनमोल कृति है. मंदिर सूर्य देवता को समर्पित अभिकल्पना मे
सूर्य देव के रथ के रूप में प्रतिबिंबित किया गया है. उत्कृष्ट नक्काशी द्वारा
संपूर्ण मंदिर स्थल को एक बारह जोड़ी चक्रों वाले सात घोड़ों से खींचे जाते सूर्य
देव के रथ के का रूप दर्शाया गया है़. परंतु अनेक विपदाओं को झेलते हुए अब इनमें
से एक ही अश्व (घोड़ा) बचा है. मंदिर के यह बारह चक्र वर्ष के बारह महीनों को
प्रतिबिंबित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है जो दिन के आठ
पहर को दर्शाते हैं इस रथ के पहिए कोणार्क की पहचान हैं.
यह मंदिर तीन
मंडपों में बना हुआ है। दो मंडप ढह चुके हैं। आजादी से पूर्व एक अंग्रेज अधिकारी
ने जहां प्रतिमा थी उस मुख्य मंडप को रेत व पत्थर भरवाकर चारों तरफ से बंद करवा
दिया। सभी दरवाजों को भी चुनाई करवाकर स्थायी रूप से बंद करवा दिया ताकि यह मंदिर
व मंडप सुरक्षित रह सकें। इस मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं-
बाल्यावस्था - उदित सूर्य - इनकी ऊंचाई लगभग 8 फुट है। युवावस्था
- मध्याह्न सूर्य - इनकी ऊंचाई लगभग साढ़े 9 फुट है। प्रौढ़ावस्था - अस्त सूर्य - इनकी
ऊंचाई लगभग साढ़े 3 फुट है।
इस मंदिर में मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों तरफ दोनों हाथियों को ऐश्वर्य पूर्व शेर
ने दबा रखा है। यह प्रतिमा एक ही पत्थर से बनी है। लगभग 28 टन वजनी इस
प्रतिमा की लंबाई 8.4 फुट, चौड़ाई 4.9 फुट और ऊंचाई 9.2 फुट है।
कोणार्क का मंदिर न
केवल अपनी वास्घ्तुकलात्घ्मक भव्घ्यता के लिए जाना जाता है बल्कि यह शिल्घ्पकला के
गुंथन और बारीकी के लिए भी प्रसिद्ध है। यह कलिंग वास्घ्तुकला की उपलब्धियों का
उच्घ्चतम बिन्घ्दु है जो भव्घ्यता, उल्घ्लास और जीवन के सभी पक्षों का अनोखा
ताल मेल प्रदर्शित करता है।
इस मंदिर मे सूर्य
देव की भव्य यात्रा को दर्शाया गया है मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं
स्थापित है जो उनकी बाल्यावस्था उदित सूर्य, युवावस्था मध्याह्न सूर्य और प्रौढावस्था
अस्त सूर्य को दर्शाती हैं. मंदिर तीन मंडपों में बना है जिसमें से दो मण्डप नष्ट
हो चुके हैं. मंदिर के प्रवेश पर दो सिंहों की मूर्तियां हैं जो हाथियों पर
आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाई देती हैं. दोनों हाथी जो मानव के ऊपर
स्थापित हैं ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं दिखने में बहुत ही सुंदर प्रतीत
होती हैं. मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं जिनकी शोभा से
प्रभावित हो उड़ीसा की सरकार ने इन्हें अपने राजचिह्न के रूप में अपना लिया है.
मंदिर के दक्षिण
भाग में दो सुसज्जित एवं अलंकृत घोड़े बने हुए हैं। प्रत्येक घोड़ा 10 फुट लंबा एवं 7 फुट चौड़ा है।
इन्हें उड़ीसा सरकार ने अपनी राजकीय मोहर के रूप में स्वीकार किया है। मंदिर परिसर
में नृत्यशाला, मायादेवी
मंदिर और छाया देवी मदिर एवं आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं हैं। आठ सौ वर्ष
पुराना यह मंदिर बिना किस सीमेंट या मसाले के पत्थर व लोहे से बनाया गया था। यह
मंदिर अपने वास्तु दोषों के कारण समय से पूर्व ही कान्तिविहीन हो गया है। इससे यह
स्पष्ट होता है कि जहां कहीं भी वास्तु दोष होगा, वहां वह अपना
प्रभाव अवश्य दिखाएगा। चाहे वह कोई देवालय हो अथवा आम व्यक्ति का निवास स्थान।
तेरहवीं सदी का यह
सूर्य मंदिर एक महान रचना है. यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में गिना
जाता है यहां की स्थापत्य कला वैभव से पूर्ण आश्चर्यचकित करने वाली है. मंदिर
अद्वितीय सुंदरता तथा अनेकों शिल्प आकृतियां जो देवताओं, दरबार की छवियों, मानवों, वाद्यकों, शिकार व युद्ध
चित्रों से भरी हुई हैं. इसके अतिरिक्त मंदिर में महीन बेल बूटे तथा ज्यामितीय
नमूने अलंकृत हैं यह मंदिर कामुक मुद्राओं युक्त शिल्पाकृतियों के लिये भी
प्रसिद्ध है. जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम दिखाई देता है.
मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता
और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प
आकृतियां भगवानों,
देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के
चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर
के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और
पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी
उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।
मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता
और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प
आकृतियां भगवानों,
देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के
चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर
के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और
पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी
उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।
यह मंदिर अपनी
कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।इस प्रकार की आकृतियां
मुख्यतः द्वारमण्डप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट
किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य
सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग
इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप
से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वाेत्तम कृति है। इसकी
उत्कृष्ट शिल्प-कला,
नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक
प्रदर्शन, इसे अन्य
मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है।
कोणार्क के सूर्य
मंदिर का महत्त्व----
यह मंदिर सूर्यदेव
(अर्क) को समर्पित था, जिन्हें स्थानीय लोग बिरंचि-नारायण कहते थे। यह जिस क्षेत्र
में स्थित था, उसे
अर्क-क्षेत्र या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था। पुराणानुसार, श्रीकृष्ण के पुत्र
साम्बको उनके श्राप से कोढ़ रोग हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के
सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्ष तपस्या की, और सूर्य देव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के
नाशक थे, ने इसका
रोग भी अन्त किया। उनके सम्मान में, साम्ब ने एक मंदिर निर्माण का निश्चय किया।
अपने रोग-नाश के उपरांत, चंद्रभाग नदी में स्नान करते हुए, उसे सूर्यदेव की एक
मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी श्री
विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मंदिर में, इस मूर्ति की
स्थापना की। तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।
ध्वस्त होने का
कारण अनेक वास्तु दोष----
-यह मंदिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र 800 वर्षों में ही
ध्वस्त हो गया। यह इमारत वास्तु-नियमों के विरुद्ध बनी थी। इस कारण ही यह समय से
पहले ही ऋगवेदकाल एवं पाषाण कला का अनुपम उदाहरण होते हुए भी समय से पूर्व धराशायी
हो गया। इस मंदिर के मुख्य वास्तु दोष हैंरू-
-वास्तु नियमों के विरुद्ध बना होने से विश्व
की प्राचीनतम इमारतों में से एक यह सूर्य मंदिर, जो ऋग्वेद काल एवं
पाषाण कलाकृति का अनुपम व बेजोड़ उदाहरण है , समय से पूर्व ही धाराशायी हो गया। यह मंदिर
अपना वास्तविक रूप खो चुका है। वर्तमान में यह विश्व सांस्कृतिक विरासत के रूप में
संरक्षित है। इससे थोड़ी दूर पर समुद्र है जो चंद्रभागा के नाम से प्रसिद्ध है। यह
स्थान भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र की दंतकथा के कारण भी प्रसिद्ध है।
-कोणार्क सूर्य मंदिर के मुख्य वास्तु दोष
दक्षिण-पश्चिम कोण में छाया देवी मंदिर की नींव प्रधानालय की अपेक्षा काफी कम
ऊंचाई में है। उसके र्नैत्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचे भाग में है। पूर्व
से देखने पर पता लगता है कि ईशान, आग्नेय को काटकर वायव्य, र्नैत्य की ओर बढ़ा
हुआ है। प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है जिससे पूर्व द्वार
अनुपयोगी सिद्ध हुआ।
-मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं
ईशान कोण खंडित हो गए।
-पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय
कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है।
-प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने
नृत्यशाला है, जिससे
पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है।
-नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव
प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और
नीचा है।
-क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है।
-दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार
हैं, जिस कारण
मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं।
-मंदिर का निर्माण रथ की आकृति में होने के
कारण पूर्व, ईशान व
आग्नेय दिशाएं खंडित हो गई हैं। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है। मायादेवी
और छाया देवी के मंदिर प्रधान मंदिर से कम ऊंचाई पर र्नैत्य क्षेत्र में हैं।
दक्षिण व पूर्व दिशा में विशाल द्वार हैं जिसके कारण मंदिर का वैभव व ख्याति क्षीण
हो गई है।
-भारत के ईशान और पूर्वी भाग पश्चिम से कुछ
नीचे झुके हुए तथा बढ़े हुए होने के कारण ही यह देश अपने आध्यात्म, संस्कृति दर्शन तथा
उच्च जीवन मूल्यों एवं धर्म से समस्त विश्व को सदैव प्रभावित करता रहा है। वास्तु
का प्रभाव मंदिरों पर भी होता है, विश्व प्रसिध्द तिरूपति बालाजी का मंदिर
वास्तु सिध्दांतों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, वास्तुशास्त्र की दृष्टि से यह मंदिर शत
प्रतिशत सही बना हुआ है।
इसी कारण यह संसार
का सबसे धनी एवं ऐश्वर्य सम्पन्न मंदिर है जिसकी मासिक आप करोड़ों रुपये है। यह
मंदिर तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है किन्तु उत्तर और ईशान नीचा है। वहां
पुष्करणी नदी है, उत्तर में
आकाश गंगा तालाब स्थित है जिसके जल से नित्य भगवान की मूर्ति को सृजन कराया जाता है। मंदिरों पूर्वमुखी है और मूर्ति
पश्चिम में पूर्व मुखी रखी गई है।
-इसके ठीक विपरीत कोणार्क का सूर्य मंदिर है।
अपनी जीवनदायिनी किरणों से समस्त विश्व को ऊर्जा, ताप और तेज प्रदान
करने वाले भुवन भास्कर सूर्य के इस प्राचीन अत्यन्त भव्य मंदिर की वह भव्यता, वैभव और समृध्दि
अधिक समय तक क्यों नहीं टिक पायीं? इसका कारण वहां पर पाये गये अनेक वास्तु दोष
हैं। मुख्यतः मंदिर का निर्माण स्थल अपने चारों ओर के क्षेत्र से नीचा है। मंदिर
के भूखण्ड में उत्तरी वायव्य एवं दक्षिणी नैऋत्य बढ़ा हुआ है जिनसे उत्तरी ईशान एवं
दक्षिणी आग्नेय छोटे हो गये हैं। रथनुमा आकार के कारण मंदिर का ईशान और आग्नेय कट
गये हैं तथा आग्नेय में कुआं है। इसी कारण भव्य और समृध्द होने पर भी इस मंदिर की
ख्याति, मान्यता
एवं लोकप्रियता नहीं बढ़ सकी।
-कुछ विद्वान मुख्य मंदिर के टूटने का कारण
इसकी विशालता व डिजाइन में दोष बताते हैं जो रेतीली भूमि में बनने के कारण धंसने
लगा था लेकिन इस बारे में एक राय नहों है। कुछ का यह मानना है कि यह मंदिर कभी पूर्ण
नहीं हुआ जब कि आईने अकबरी में अबुल फजल ने मंदिर का भ्रमण करके इसकी कीर्ति का
वर्णन किया है। कुछ विद्वानों का मत है कि काफी समय तक यह मंदिर अपने मूल स्वरूप
में ही था। बिन्टिश पुराविद् फर्गुसन ने जब 1837 में इसका भ्रमण किया था तो उस समय मुख्य
मंदिर का एक कोना बचा हुआ था जिसकी ऊँचाई उस समय 45 मीटर बताई गई। कुछ
विद्वान मुख्य मंदिर के खंडित होने का कारण पन्कृति की मार यथा भूकंप व समुद्री
तूफान आदि को मानते हैं लेकिन इस क्षेत्र में भूकंप के बाद भी निकटवर्ती मंदिर
कैसे बचे रह गए यह विचारणीय है। गिरने का अन्य कारण इसमें कम गुणवत्ता का पत्थर
प्रयोग होना भी है जो काल के थपेडों व
इसके भार को न झेल सका। किंतु एक सर्वस्वीकार्य तथ्य के अनुसार समुदन् से खारे
पानी की वाष्प युक्त हवा के लगातार थपेडों से मंदिर में लगे पत्थरों का क्षरण होता
चला गया और मुख्य मंदिर ध्वस्त हो गया।
चुम्बकपत्थर----
मंदिर के इतिहास के
जानकार यह भी दावा करते हैं कि पहले सूर्य मंदिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा
था. इस पत्थर के प्रभाव से कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत इस ओर खिंचे
चले आते थे, जिससे
उन्हें भारी क्षति हो जाती थी. कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि इस पत्थर के कारण
पोतों के चुंबकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते थे. इस कारण अपने पोतों
को बचाने के लिए मुसलिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये. मंदिर के शिखर पर लगा यह
पत्थर एक केंद्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन
में थे. इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन बिगड़ गया और वे
गिर पड़ीं.
(साई फीचर्स)
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