आधा है चंद्रमा रात
आधी . . .
(लिमटी खरे)
घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, अनाचार में आकंठ
डूबे कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह ने अंततः चोला बदलने
का असफल प्रयास कर ही लिया। भ्रष्ट मंत्रियों को हटाने में मनमोहन सिंह सफल नहीं
रहे। चिदम्बरम, सलमान
ख्ुर्शीद जैसे दागी आज भी भारत गणराज्य के जिम्मेदार मंत्री हैं। वहीं कांग्रेस के
कुछ सिपाह सलार संगठन की सेवा में लगा दिए जाएंगें। जनता का ध्यान भ्रष्टाचार से
हटाने के लिए मनमोहन सिंह का यह प्रयास कितना रंग ला पाएगा यह तो वक्त ही बताएगा
किन्तु एक बात साफ तौर पर दिखाई दे रही है कि प्रधानमंत्री का विवेकाधिकार अब
वजीरे आजम की मिल्कियत नहीं बची। पिछले दो दशकों से संगठन और सहयोगी दलों की चाबुक
के आगे प्रधानमंत्री भी बेबस नजर ही आते रहे हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी
की ताजपोशी रूक गई पर कांग्रेस के चाटुकार राहुल गांधी को महिमा मण्डित करने में
कोई कसर नहीं रख छोड़ने वाले हैं।
भारत गणराज्य में
जितने भी वजीरे आजम अब तक हुए हैं उनमें नेहरू गांधी परिवार से इतर पांच साल का
कार्यकाल पूरा करने वाले भाजपा के अटल बिहारी बाजपेयी ही रहे हैं। बाजपेयी के
उपरांत अब डॉ.मनमोहन सिंह कांग्रेस के ही एसे इकलौते वजीरे आजम बन गए हैं जो नेहरू
गांधी परिवार के ना होने के बाद भी लगातार आठ सालों से देश पर शासन कर रहे हैं।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली पारी तो ठीक ठाक रही किन्तु दूसरी पारी में
कांग्रेस और सहयोगी दलों के नेताओं ने भ्रष्टाचार को नंगा नाच किया है उससे भारत
का गौरवशाली लोकतंत्र शर्मसार ही हुआ है।
विडम्बना तो देखिए
मीडिया विशेषकर सोशल मीडिया (सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स) पर कांग्रेस और मनमोहन
सिंह की ईमानदारी पर प्रश्न चिन्ह लगाते ही मनमोहन सिंह से मौन मोहन सिंह ने अपना
मौन तोड़ा और आधा दर्जन संपादकों की एक टोली बुलवाकर उनके सामने अपना दुखड़ा रो दिया
गया। इस समय प्रधानमंत्री ने परोक्ष तौर पर राष्ट्रधर्म के बजाए गठबंधन धर्म की
हिमायत की। संपादकों की टोली भी बाहर आकर खींसे निपोरते हुए प्रधानमंत्री का बचाव
करने लगे।
कहा जाने लगा कि
प्रधानमंत्री ने आधा दर्जन संपादकों को चाय पर बुलाकर सरकार के इन प्रवक्ताओं को
देश भर में छोड़ दिया है। मनमोहन सिंह इस मामले में औंधे मुंह ही गिरे। इन संपादकों
की टोली की बात किसी ने भी नहीं सुनी। इसके बाद भारत सरकार के सूचना और प्रसारण
मंत्रालय के अधीन आने वाले डीएवीपी ने विज्ञापनों का खेल खेला। बड़े और नामचीन
अखबारों को भरपेट विज्ञापन मिलने लगे, छोटे और मंझोले अखबार विज्ञापन को तरस गए।
बहरहाल, रविवार को मनमोहन
सिंह ने मंत्री मण्डल का विस्तार (एक बार फिर वही पुरानी मैली कमीज झटककर पहन ली
है) किया है। इस विस्तार में युवाओं को आगे लाने की हिमायत की जा रही है। ज्यादातर
मंत्री साठ के पेठै में हैं। देश के महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और मनमोहन
सिंह खुद भी उमर दराज हो चुके हैं पर सत्ता का मोह किसी से छोड़ा नहीं जा रहा है।
सुशील कुमार शिंदे,
पलनिअप्पम चिदम्बरम, कमल नाथ, जयराम रमेश आदि
नेता भी सेवानिवृत्ति की उम्र पार कर चुके हैं पर आज भी युवा ही बने हुए हैं।
पलनिअप्पम चिदम्बरम
और सलमान खुर्शीद पर गंभीर आरोप हैं। कमल नाथ का नाम नीरा राडिया के टेप कांड में
कमीशन को लेकर उछला था। धार्मिक मामले में जयराम रमेश ने विवादस्पद बयान दिया था।
बावजूद इसके इन सभी को लाल बत्ती से नवाजकर मनमोहन सिंह ने अपनी कमजोरी को दर्शा
ही दिया है। अनेक देशवासियों के जेहन में उठ रहे इन प्रश्नों के जवाब तो सिर्फ
मनमोहन सिह ही दे सकते हैं।
अव्वल तो यह कि
क्या वाकई मनमोहन सिंह ईमानदार हैं? अगर हां, तो वे इन बेईमान
दागी जनसेवकों को अपनी टीम का हिस्सा क्यों बनाए हुए हैं? अब तक हुए घपले
घोटाले, भ्रष्टाचार
पर मनमोहन ने मौन क्यों साधा हुआ है? कांग्रेस के अघोषित राष्ट्रीय दामाद राबर्ट
वढ़ेरा के जमीन घोटाले मामले में मनमोहन ने अपनी चुप्पी क्यों नहीं तोड़ी? दुनिया के चौधरी
अमरीका की पत्रिका द्वारा मनमोहन सिंह को अंडर अचीवर के खिता से क्यों नवाजा गया? क्यों एफडीआई के
मामले की हिमायत कर मनमोहन सिंह कुटीर उद्योगों के हाथ काटने पर तुले हुए हैं? क्या कारण है कि
उपराष्ट्रपति के निवास और नवीन जिंदल के नाम से एक साल में अनगिनत घरेलू सब्सीडी
वाले सिलन्डर की खबरें उजागर होने पर केंद्र सरकार ने कार्यवाही नहीं की? विदेशों में जमा
काला धन वापस लाने,
घपले घोटालों का धन वापस राजकोष में जमा करवाने के बजाए रसोई गैस
पर से सब्सीडी हटाकर गरीब की कमर क्यों तोड़ी जा रही है?
इस तरह के अनेकानेक
सवाल हैं जिनका उत्तर या तो मनमोहन सिंह दे सकते हैं या फिर कांग्रेस अध्यक्ष
श्रीमति सोनिया गांधी। भारत देश की जनता बहुत सहिष्णु है, इस बात से इंकार
नहीं किया जा सकता है। इसी सहिष्णुता को ब्रितानी गोरों ने हमारी कायरता या
नपुंसकता समझने की भूल की थी। आज की सरकारें भी कमोबेश देश की जनता की सहिष्णुता
को देशवासियों की नार्मदगी और कायरता समझने की भूल कर रही है।
आम आदमी के अंदर एक
लावा धधक रहा है। पेट भर वेतन भत्तों के बाद भी जनसेवकों की भूख नहीं मिट रही है।
आम गरीब आदमी पेट में पानी की पट््टी बांधकर अपनी भूख को दबा रहा है। गुरूर में
मस्त जनसेवक गरीबों का मजाक उड़ाने से नहीं चूक रहे हैं। योजना आयोग करोड़ों खर्च
करता है अपने यहां के अफसरों की लघु और दीर्घ शंका (टायलेट) के लिए, पर मनमोहन सिंह खामोश
रहते हैं? क्या हो
रहा है इस देश में कोई बताने वाला नहीं बचा है। अभी भी समय है हुक्मरान अगर नहीं
चेते तो यह जनता जिसने विशाल जनादेश देकर जनसेवकों को सर पर बिठाया है वह उन्हीं
जनसेवकों को सत्ता के गलियारे से बाहर फेंकने में भी गुरेज नहीं करने वाली।
इस विस्तार में
सोमनहल्ली मलैया कृष्णा को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। वे विदेश मंत्री के बतौर
फिट नहीं हो पा रहे थे। उनके स्थान पर सलमान खुर्शीद की ताजपोशी की गई है जिन पर
एक एनजीओ के माध्यम से विकलांगों का पैसा खाने का आरोप है। देश के एनजीओ को
विदेशों से खासा चंदा मिलता है यह बात किसी से छिपी नहीं है। सोनिया के लिए जान तक
देने की बात कहने वाले खुर्शीद को इन आरोपों के बाद बाहर का रास्ता दिखाने की बजाए
पदोन्नति दी गई है।
पेट्रोलियम मंत्री
जयपाल रेड्डी को वहां से हटा दिया जाना इस बात का घोतक है कि मनमोहन सिंह चंद
पूजींपतियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गए हैं। मुनाफे के लिए अब तक अपने हिसाब
से सरकार को हांककर नीतियां बनवाते आए पूंजीपतियों की जयपाल रेड्डी के रहते दाल
नहीं गल पा रही थी। लंबे समय से इस तरह की खबरें आ रही थीं कि रेड्डी को हटवाने ये
पूंजीपति सक्रिय थे। अतंतः जीत इनकी ही हुई।
वहीं दूसरी ओर
सरकार के कुछ मंत्री देश हित में काम कर रहे थे पर उनसे वे महत्वपूर्ण विभाग ही
छीन लिए गए। मसलन बड़बोले जयराम रमेश देश में शौचालयों के लिए प्रयासरत थे। अगर
जयराम का अभियान सफल हो जाता तो निश्चित तौर पर सारी दुनिया में वे छा जाते। अगर
रमेश आगे बढ़ जाते तो राहुल की पूछ परख कम होना स्वाभाविक ही थी। संभवतः यही कारण
है कि रमेश से एक मंत्रालय छीन लिया गया।
कुल मिलाकर मनमोहन
सिंह ने ताश के बावन पत्ते आपस में फेंटें अवश्य हैं पर वे वही पुराने ही पत्ते
हैं जिनमें से अधिकतर पर तो दाग ही लगे हुए हैं। मंत्रीमण्डल के आकार, प्रकार, सदस्यों की तासीर
और सोच को देखकर यह लगता नहीं है कि आने वाले दिनों में जनता के मन में कांग्रेस
के प्रति सोच में सकारात्मक बदलाव आ सकेगा।