हिन्दी का हक मारते
हरिवंश
(लीना / विस्फोट)
पटना (साई)। आदर
सहित बिहार की पत्रकारिता में उन्हें हरिवंश जी कहते हैं। नाम के साथ आदर सूचक
शब्द इसलिए भी क्योंकि वे हिन्दी के उन गिने चुने पत्रकारों में हैं जो हिन्दी को
हिन्दी की तरह से समझते बूझते हैं. लेकिन मंगलवार को पहली बार प्रभात खबर का नया
संस्करण पटना में प्रस्तुत किया गया तो लगा कि हिन्दी का हक मारनेवालों में अब
हरिवंश जी भी शामिल हो गये हैं. ‘जर्नलिज्म जिंदगी का’ नाम से उन्होंने
संपादकीय लिखा है उसमें संशय के साथ ही सही लेकिन वे हिन्दी का हक मारते दिखाई
देते हैं।
‘जर्नलिज्म जिंदगी का’ से ही जिंदगी की
पत्रकारिता नहीं बदलती है। पत्रकारिता के मायने बदलते हैं तब, जब उससे किसी की
जिंदगी कुछ बदलती हो। पत्रों के खबरों से, उसके प्रभाव से, समाज में कुछ
सकारात्मक पहल लाई जा सके। यकीनन खबरों को खूबसूरती से पेश करना एक अच्छी पहल है।
लेकिन क्या खूबसूरती सिर्फ हिन्दी भाषा को मारकर उसपर अंग्रेजी के शब्द बिछा देने
से ही आ सकती है ?
क्या हिन्दी के शब्द खूबसूरत नहीं हैं?
यकीन नहीं होता कि
हिन्दी को धीमा जहर देकर मौत देने की साजिश में हरिवंश जी (आदर सहित) जैसे वरिष्ठ
पत्रकार-साहित्यकार भी अब शामिल हो गए हैं ! हांलांकि ऐसी भाषा परोसने में निश्चय
ही स्वयं हरिवंश जी भी हिचकिचा रहे हैं या भ्रम की स्थिति में हैं। यह आज नए
प्रभात खबर अखबार का पहला पेज स्वयं बोल रहा हैं। जिसमें बड़ी कलात्मकता के साथ
स्वयं हरिवंश जी ने बदलाव की प्रतिध्वनि पर अखबार के नए स्वरूप में ढलने, यानी आने वाले
दिनों में पत्र की सामग्री में होने वाले वाले बदलाव की चर्चा की है। अपने छोटे से
संपादकीय में ही जब वे रूप को कंटेंट, नालेज एरा को कोष्टक में ज्ञानयुग लिखते हैं
तो उन्हें भी संशय है या कि पक्का पता है कि इस बदलते पत्र के कई शब्द बहुतों को
सही-सही समझ में नहीं आएंगे। जिंदगी को लाइफ और शहर को सिटी मात्र कह देने से
लोगों का जीवन नहीं बदल सकता। आखिर अखबार क्या कर रहें हैं ? यह एक बड़ा सवाल है।
तो क्या लोगों को यहां अग्रेजी सिखाने की कोशिश हो रही है। इसके लिए पत्र या तो
अलग से भाषा सीखाने वाली सामग्रियां छापें या फिर पाठक अंग्रेजी का अखबार ही
खरीदें।
सिर्फ प्रभात खबर
का नया अवतार ही नहीं आज लगभग हिन्दी के सभी पत्र अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से
इस्तेमाल कर रहे हैं। आज हिन्दी की भाषा को हिन्दी पत्रकारिता से ही खतरा है।
हिन्दी को सायास व सुनियोजित तरीके से मारा जा रहा है। लोगों को पता भी नहीं चलता और उन्हें लगता है
कि अंग्रेजी शब्दों के ये इस्तेमाल किसी भाषा में होने वाली ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जबकि ऐसा नहीं है।
हिन्दी के अधिकांश पत्रों में यह परिवर्तन हिन्दी के प्रति रूखेपन और बेकारगी का
भाव रखते हुए इरादतन किया जा रहा है। पहले हिन्दी के रोजमर्रा के मूल शब्दों को
हटाकर वहां धीरे-धीरे एक-एक कर अंग्रेजी शब्दों को डाला जाने लगा। युवा की जगह यंग
आए, माता पिता
की जगह पैरेन्ट्स,
अब पत्रकारिता की जगह ले ली है जर्नलिज्म ने। ऐसे न जाने
कितने उदाहरण हैं।
आमतौर पर हिन्दी
में बोलचाल में हजार-डेढ़ हजार शब्दों का इस्तेमाल का इस्तेमाल होता है। इतने
शब्दों को हटाकर अगर अधिक से अधिक अंग्रेजी शब्दों को डाल दिया जाएं तो हिन्दी की
मूल भाषा में सिर्फ कारक रह जाएंगे। जैसे ष्स्टूडेंट्स ने शेयर किये सक्सेस
सीक्रेट्सष्। अब तो शब्द ही नहीं हिन्दी अखबारों ने देवनागरी लिपि में पूरे
अंग्रेजी के वाक्यों को डालने की शुरुआत भी कर दी है। जैसे ष्थैंक यू माम फार
बीइंग देयरष्। यह कहना कि नई पीढ़ी के लिए है यह बेकार की बात है क्योंकि जो आप
उन्हें पढ़ा रहे हैं वही वे पढ़ रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि उन्हें हिन्दी के
शब्द समझ नहीं आते। किसी अखबार की खबरों पर चर्चा न करते हुए बहरहाल यहां एक ही
बड़ा सवाल उठाया है कि हिन्दी भाषा को कहीं हिन्दी पत्रकारिता ही न मार डाले, क्योंकि इसमें अब
छोटे बड़े सब शामिल होते जा रहें हैं।
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