समाजवाद का खून
(विष्णु गुप्त)
नई दिल्ली (साई)।
जवाहर लाल नेहरू के परिवारवाद का रक्तवीज अब भारतीय राजनीति को लहूलुहान कर रहा
है। अब परिवारवाद के लिए अकेले दोषी कांग्रेस रही नहीं। कांग्रेस और नेहरू खानदान
की यह बीमारी लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में फैल चुकी हैं। राजनीति में
परिवारवाद के सबसे बड़े विरोधी राममनमोहर लोहिया थे। जब देश के पहले प्रधानमंत्री
जवाहर लाल नेहरू ने राजनीति में परिवारवाद की शुरूआत की थी और अपने जीवन काल में
ही अपनी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस की अध्यक्ष बनवा दिया था तब राममनोहर
लोहिया बहुत मर्माहत हुए थे और उन्होंने कहा था कि देश की आजादी का मूल उद्देश्य
अब शायद ही पूरा होगा और कांग्रेस नेहरू परिवार की जागीर बन कर देश का सर्वनाश
करेगी। कांग्रेस तो नेहरू परिवार की जागीर जरूर बन कर रह गयी, पर राममनोहर लोहिया
ने जिस समाजवाद का सपना देखा था उनके अनुयायी उस सपने के साथ क्या कर रहे हैं?
दुर्भाग्य यह है कि
राममनोहर लोहिया ने अपने समाजवाद के सपने को पूरा करने के लिए जिन कंधों और जिस
राजनीतिक धारा को खड़ा किया था-प्रशिक्षित किया था या फिर जो राममनोहर लोहिया की
विरासत पर खड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं वह भी तो पूरी तरह से समाजवाद के मूल
उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहीं कहां? लोहिया के शिष्य आज समाजवाद के नाम पर
परिवार वाद बढ़ाने और स्थापित करने में लगे
हुए हैं। मुलायम सिंह यादव ने पहले अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का
मुख्यमंत्री बनवाया और अब अखिलेश यादव द्वारा खाली किये गये कन्नौज लोकसभा से सीट
से अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लडेगी। लालू प्रसाद यादव अपनी जगह अपनी
पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवाने का कारनामा दिखा चुके हैं। आज न कल लालू
का बेटा बिहार में लालू का राजनीति में उत्तराधिकारी बनेगा। अन्य राजनीतिक
पार्टियों में भी यही स्थिति है। जब राजनीति पूरी तरह से परिवारवाद में कैद हो
जायेगी तब आम आदमी का राजनीति में प्रवेश और हिस्सेदारी कितना दुरूह और कठिन होगा, यह महसूस किया जा
सकता है।
लोहिया इस खतरे को
पहचानते भी थे। पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक संवर्ग के पैरबीकार लोहिया जरूर थे। पर
उन्होंने यह भी कहा था कि जब उंची जातियों से खिसक कर राजनीतिक सत्ता पिछड़ी या फिर
दलित जातियों के बीच आयेगी तब भी दलित या पिछड़ी जमात की कमजोर जातियो की सहभागिता
के संधर्ष समाप्त नहीं होगें। सवर्ण जातियों से
खिसक कर पिछड़ी और दलित संवर्ग के पास सत्ता जरूर आयेगी पर उस सत्ता का
चरित्र और मानसिकता भी सवर्ण सत्ता से बहुत ज्यादा अलग या क्रातिकारी नहीं होगा।
ऐसी स्थिति में पिछड़ी और दलित जमात की कमजोर जातियों के पास फिर से संघर्ष करने के
अलावा और कोई रास्ता नहीं होगा। यह सब पिछड़ी और दलित राजनीति में साफतौर पर देखा
गया और ऐसी राजनीतिक स्थितियां भी निर्मित हुई हैं। समाजवाद के नाम पर बिहार में
लालू-राबड़ी ने 15 सालों तक राज किया। लालू-राबड़ी राज में संपूर्ण पिछड़ी जाति का
कल्याण हुआ कहां। सिर्फ यादव जाति का कल्याण हुआ। यादव जाति के अपराधी-गुंडे और
मवाली सांसद-विधायक बन गये। लालू जब चारा घोटाले में जेल गये तब उनकी पत्नी राबड़ी
देवी मुख्यमंत्री बना दी गयी। लालू का पूरा ससुराल ही विधानसभा और संसद में चला
गया। साधु यादव-सुभाष यादव नामक लालू के दो साले एक साथ संसद के सदस्य बन गये।
लालू-राबड़ी का बिहार में नाश हुआ और नीतिश कुमार के हाथों में सत्ता आयी पर
अतिपिछड़ी और दलित जातियां आज भी नीतिश की सत्ता के पुर्नजागरण से दूर हैं। नीतिश
भी समाजवाद के नाम पर एन के सिंह और किंग महेन्द्रा की संस्कृति के संवाहक बन गये।
मुलायम सिंह यादव
अपने आप को लोहिया की विरासत मानते हैं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी का नाम ही
समाजवादी पार्टी है। उत्तर प्रदेश में समाजवाद के नाम पर मुलायम सिंह यादव ने अपनी
राजनीतिक शक्ति बनायी और पूरी पिछड़ी जाति की गोलबंदी के विसात पर सरकार बनायी। पर
सत्ता में आने के साथ ही मुलायम सिंह यादव ने अपनी यादव जाति और अपने परिवार को
आगे बढ़ाने के लिए शतरंज के मोहरे खड़े करते रहे। मुलायम सिंह के एक भाई रामगोपाल
यादव संसदीय राजनीति में पहले से ही स्थापित हैं और उत्तर प्रदेश में उनके एक भाई
शिवपाल यादव मायावती सराकार में विपक्ष के नेता थे। मायावती की अराजक और कुशासन के
कारण मुलायम सिंह यादव की सपा को उत्तर प्रदेश में फिर से सत्ता मे आने का जनता से
सटिर्फिकेट मिला। मुलायम सिंह यादव ने खुद मुख्यमंत्री नहीं बने पर वे अपने दल के
अन्य बड़े नेताओं को नजरअंदाज कर अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया।
अखिलेश यादव न सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं बल्कि मुलायम सिंह
यादव के उत्तराधिकारी भी बन चुके हैं। अब सपा की असली कमान अखिलेश यादव के पास ही
है। सपा में अब कौन अखिलेश यादव को चुनौती देगा?
एक समय लोहिया के
शिष्य लालू, मुलायम, शरद यादव आदि
कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ आग उगलते थे और नेहरू खानदान के परिवारवाद को देश
के लिए घातक बता कर जनता का समर्थन हासिल करते थे। लेकिन जब इनके पास सत्ता आयी तब
ये खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा देने और परिवारवाद पर आधारित राजनीतिक पार्टियां खड़ी
करने में लग गये। यह स्थिति सिर्फ समाजवादियो और समाजवाद पर आधारित राजनीतिक दलों
मे ही नहीं हैं। क्षेत्रीय स्तर पर और कुनबे स्तर पर जितनी राजनीतिक पार्टियां अभी
विराजमान हैं उन सभी पर परिवारवाद हावी है, जातिवाद हावी है, कुनबावाद हावी है
और क्षेत्रीयतावाद हावी है। जम्मू-कश्मीर में फारूख अब्दुला ने अपने बेटे उमर
अब्दुला अब्दुला को मुख्यमंत्री बनवा दिया। तमिलनाडु में दुम्रक कभी सवर्ण विरोध
पर आधारित राजनीति पार्टी के रूप में विकसित और स्थापित हुर्इ्र थी। पर दुम्रक पर
आज सिर्फ और सिर्फ करूणानिधि परिवार का कब्जा है। करूणानिधि के बरइ उनके बेटे और
बेटी ही दु्रमक का कमान संभालेंगे। आंध प्रदेश में जगन रेड्डी अपने बाप का
उत्तराधिकारी है। उड़ीसा में बीजू पटनायक भी लोहियावादी और समाजवादी थे। आज विजु
पटनायक का बेटा नवीन पटनायक उड़ीसा में मुख्यमंत्री हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों मे
परिवारवाद और कुनबावाद नहीं है पर वहां सवर्णवाद जरूर है। भाजपा में परिवारवाद उस
तरह नहीं है जिस तरह कांग्रेस और समजावादी धारा की राजनीतिक पार्टियां मे
परिवारवाद है। मध्य प्रदेश मे शिवराज सिंह चौहान, गुजरात में नरेन्द
मोदी और बिहार में सूशील मोदी जैसे राजनीतिक सितारे इसलिए चमके हैं कि उनकी पार्टी
परिवारवाद में पूरी तरह रंगी नहीं है।
राजनीति में
मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यंमत्री होगा? मंत्री का बेटा मंत्री होगा? संासद का बेटा
सांसद होगा और विधायक का बेटा विधायक होगा? ऐसी स्थिति में आम लोगों की राजनीतिक
हिस्सेदारी कैसे सुनिश्चित होगी।राजनीतिक पार्टियां संघर्षशील और ईमानदार
व्यक्तित्व को संसद-विधान सभाओं में भेजने से पहले ही परहेज कर रही हैं। कांग्रेस
से उम्मीद भी नहीं हो सकती है कि वह परिवार वाद से दूर होगी। पर समाजवादियों और
समजावादी धारा की राजनीतिक दलों पर हावी परिवारवाद काफी चिंताजनक है। लोहिया के
विरासत मानने वाले लालू, मुलायम, शरद यादव, नवीन पटनायक से यह
जरूर पूछा जाना चाहिए कि परिवारवाद खड़ा करना कहां का समाजवाद है। क्या राममनोहर
लोहिया ने परिवारवाद का सपना देखा था? पर सवाल यह उठता है कि लालू, मुलायम, शरद यादव और नवीन
पटनायकों से यह सवाल पूछेगा कौन?
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