सिंह इज करप्शन
किंग
(प्रेम शुक्ला)
प्रधानमंत्री डॉ.
मनमोहन सिंह ने बीते शुक्रवार को राष्ट्र के नाम दिए गए संदेश में देशवासियों पर
लानतों की बरसात की है। प्रधानमंत्री ने खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
की अनुमति देने के अपने फैसले को न्यायोचित करार देने के लिए उल्टे जनता से सवाल
पूछा कि ‘क्या रुपए
पेड़ पर उगते हैं?’
दुर्भाग्यवश इस देश की मुख्यधारा का मीडिया डॉ। मनमोहन सिंह
को बेहद शालीन, ईमानदार, कर्तव्यपरायण और
लोकतांत्रिक व्यक्ति करार देता है।
अर्थतंत्र-अनर्थतंत्ररू
सच्चाई मीडिया जनित इस धारणा के ठीक विपरीत है। मनमोहन सिंह के पूरे कैरियर का
बारीकी से विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि भारतीय अर्थतंत्र अनर्थतंत्र में
तब्दील करने वाला व्यक्ति डॉ। मनमोहन सिंह है। 2004 से 2012 तक के उनके
प्रधानमंत्रित्व काल का आकलन किया जाए तो उन्हेांने इस कालावधि में हमारी
लोकतांत्रिक प्रणाली के महत्वपूर्ण स्तंभों की जितनी अवमानना की है उसके बाद उनके
खिलाफ ‘महाभियोग’ से कम कोई कार्रवाई
नहीं की जानी चाहिए। आश्चर्य है कि मनमोहन सिंह के पापों पर उन्हें दंडित करने की
मांग करना तो दूर उनके खिलाफ कुछ खुलकर कहने में विपक्ष को भी संकोच हो रहा है।
पहले हम मनमोहन सिंह के इस बयान की पड़ताल कर लेते हैं कि ‘अर्थ व्यवस्था
सुधारने के लिए देश को कठोर फैसले करने पड़ेंगे।’
जिम्मेदार कौनरू
सवाल पैदा होता है कि इस देश की आर्थिक बदहाली के लिए क्या आम जनता जिम्मेदार है, या राजनीतिक
विपक्षी दल जिम्मेदार हैं? सच्चाई तो यह है कि देश की आर्थिक बदहाली के लिए डॉ। मनमोहन
सिंह से ज्यादा जिम्मेदार कोई दूसरा व्यक्ति इस देश में हो ही नहीं सकता। मनमोहन
सिंह बीते 5 दशकों से इस देश की आर्थिक नीतियों को तय करने वाले नियामकमंडल के
कर्ता-धर्ता हैं। मनमोहन सिंह पर टिप्पणी करने वाले अधिकांश पत्रकार मनमोहन सिंह
का कैरियर 1991 के बाद ही देखते हैं, जिस पर उन्हें आर्थिक उदारीकरण का श्रेय
देकर भारत की आधुनिकता अर्थव्यवस्था का तारणहार करार देकर उनकी प्रशंसा करते है।
‘फिक्सर’रू मनमोहन सिंह का
असली चेहरा जानना हो तो पहले 1970 के दशक के उनके इतिहास पर नजर डालनी पड़ेगी। 1970
के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘फिक्सर’ के रूप में कुख्यात
हुआ करते थे ललित नारायण मिश्र। ललित नारायण मिश्र को इंदिरा गांधी ने विदेश
व्यापार विभाग का प्रभार सौंप रखा था। उन दिनों विपक्षियों का आरोप हुआ करता था कि
ललित नारायण मिश्र कांग्रेस के सत्ताधारी परिवार का धन ठिकाने लगाया करते थे। 1966
में मनमोहन सिंह ने पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद यूनाइटेड नेशंस
कॉन्फ्रेन्स ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट ;न्छब्ज्।क्द्ध में फाइनेंसिंग एंड ट्रेड
सेक्शन के मुखिया का पदभार संभाला। भारत से चिली की राजधानी सैटियागो जाते समय
ललित नारायण मिश्र पहली बार डॉ। मनमोहन सिंह से मिले। दोनों में याराना हो गया।
ललित नारायण मिश्र ने कुछ दिन बाद ही मनमोहन सिंह को विदेश व्यापार के मामले में
भारत सरकार के सलाहकार पद पर नियुक्त कर दिया। कालेधन के तत्कालीन फिक्सर को
मनमोहन सिंह इतने प्रिय क्यों लगे? सालभर के भीतर मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय
का मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त कर दिया। जिस पद पर हाल तक कौशिक बसु थे और अब
रघुराम राजन विश्व बैंक की सिफारिश से आए हैं उस महत्वपूर्ण पद पर मनमोहन सिंह
1972 से 1976 तक रहे। 1976 में उन्हें रिजर्व बैंक का निदेशक बना दिया गया, इसी दौरान
(1976-1980) तक उन्हें इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया (आईडीबीआई) का भी
निदेशक पद प्राप्त था।
हाशिए पर मनमोहनरू
1977 में जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का पतन हो गया। तब
महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकांश अफसरों को हाशिए पर फेंक दिया गया। पर मनमोहन
सिंह की छुट्टी किए जाने की बजाय उनका प्रमोशन हो गया। 1977 से 1980 तक जनता
पार्टी की सरकार के शासनकाल में भी वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलात विभाग के वे
सचिव पद पर रहे। 1980 में जब जनता पार्टी की सरकार का पतन हुआ तब दो वर्षों के लिए
वे ठाली बैठे रहे। संभव है कि संजय गांधी ने उनकी चालबाजी को पहचान लिया हो और
जनता पार्टी सरकार से चिपकने का उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा हो। संजय गांधी के
आकस्मिक निधन के बाद मनमोहन सिंह की सरकारी महकमे में पुनर्वापसी हुई। तत्कालीन
वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गवर्नर बना लाए। 1982 से
1985 तक वे इस पद पर रहे। 1985 में प्रणव मुखर्जी सत्ता से बाहर फेंक दिए गए।
राजीव गांधी का
अविश्वासरू राजीव गांधी को प्रणव मुखर्जी पर गहरा अविश्वास हो गया था। ऐसे में
मनमोहन सिंह को मुखर्जी लॉबी का होने के चलते हाशिए पर डाल दिया चाहिए था। राजीव
गांधी के कार्यकाल में भी मनमोहन सिंह महत्वपूर्ण पद झटकने में कामयाब रहे। 1985
में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया। 1987 में मनमोहन सिंह की हरकतों
से नाराज होकर राजीव गांधी ने योजना आयोग को ‘जोकरों का अड्डा’ करार दिया था। तब
मनमोहन सिंह योजना आयोग को छोड़कर जेनेवा स्थित ‘साउथ कमीशन’ के सेक्रेटरी जनरल
बन गए। साउथ कमीशन में उनके कार्यकाल के दौरान गरीब देशों में विदेशी निवेश किस
तरह से छलावा है, का खुलासा
करने वाली एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट के माध्यम से मनमोहन सिंह के
नेतृत्व वाले साउथ कमीशन ने गरीब देशों में आने वाली विदेशी पूंजी की जो पोल खोली
वह आज भी प्रासंगिक है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में तैयार साउथ कमीशन की रिपोर्ट
का दावा किया गया कि 1986-1989 के बीच 17 गरीब देशों में पूंजी आवागमन का जो
अध्ययन किया गया उसके अनुसार इस अवधि में इन देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
(एफडीआई), विदेशी
कर्ज और अनुदान के माध्यम से कुल 215 बिलियन डॉलर की पूंजी आई। जबकि इसी दौरान इन
देशों से विकसित देशों में 330 बिलियन डॉलर की पूंजी चली गई।
विदेशी निवेशकों का
पैरोकाररू विकसित देशों द्वारा विदेशी निवेश के नाम पर एशियाई देशों को छलने का यह
जीवित प्रमाण था। 1980 के दशक की साउथ कमीशन की उस रिपोर्ट को पढ़नेवाला कोई
विश्वास नहीं करेगा कि वही व्यक्ति आज भारत के खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेशकों
के हवाले किए जाने का पैरोकार बन गया है। मनमोहन सिंह वापस भारत तब आए जब राजीव
गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ हो गए। यदि जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ।
सुब्रह्मण्यम स्वामी के दावों पर विश्वास किया जाए तो जनता दल सरकार के कार्यकाल
में मनमोहन सिंह को जेनेवा से नई दिल्ली वापसी उन्होंने कराई थी। 1990 से 1999 तक
जनता दल सरकार के शासनकाल में उन्हें आर्थिक मामलात के लिए प्रधानमंत्री का
सलाहकार बनाया गया था। जब चंद्रशेखर की सरकार का पतन सुनिश्चित हो गया था तब मार्च
1991 में उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूनिवर्सिटी ग्रांट
कमीशन-यूजीसी) का चेयरमैन बना दिया गया।
1991 में मई और जून के महीने में लोकसभा चुनाव हुए। उस समय कोई राजनीतिक विश्लेषक
यह बता पाने की स्थिति में नहीं था कि देश में अगली सरकार किसकी बनेगी? तब राजीव गांधी
जीवित थे।
विदेशी मीडिया का
दावारू मई के प्रथम सप्ताह में फ्रांस की राजधानी पेरिस से प्रकाशित होने वाले एक
अखबार ‘ला मोंड’ ने खबर प्रकाशित की
जिसका कथ्य था कि भारत में अगली सरकार चाहे जिस पार्टी की बने उस देश का अगले
वित्तमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह नामक व्यक्ति होगा। जिस व्यक्ति को 2 माह पहले
प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार पद से हटाकर यूजीसी का चेयरमैन बना दिया गया हो।
जो व्यक्ति किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य तक न हो। जिस व्यक्ति के मंत्री बनने की
कल्पना किसी भी राजनीतिक दल के आला पदाधिकारियों तक ने न की हो। उसके बारे में
इतना सटीक पूर्वानुमान फ्रांस का एक अखबार कैसे लगा लेता है? लिहाजा 21 जून 1991
को मनमोहन सिंह भारत के वित्तमंत्री बन गए और उन्होंने इंटरनेशनल मोनेटरी फंड
(आईएमएफ) और वर्ल्ड बैंक द्वारा प्रस्तावित आर्थिक नीतियों को लागू कर दिया।
कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में 1991 में दावा किया था कि यदि उनकी
सरकार आएगी तो 100 दिनों के भीतर महंगाई कम कर दी जाएगी। 21 जून 19991 को
नरसिंहराव के मंत्रिमंडल ने शपथ ली, चंद दिनों में रुपए का अवमूल्यन हो गया।
महंगाई की माररू
महंगाई घटने की बजाय बढ़ गई। चूंकि मनमोहन सिंह ने बाजार के नियामकों का गठन किए
बिना ही अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया था सो साल बीतते-बीतते प्रतिभूति घोटाले
सामने आ गए जिसमें घपलेबाजों ने आम निवेशकों के खून पसीने की लगभग 1।8 बिलियन डॉलर
की रकम पार कर दी। जब 1993 में मनमोहन सिंह की कार्यप्रणाली के खिलाफ चौतरफा हमला
हुआ तो उन्होंने वित्तमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी। मनमोहन सिंह के इस पेशकश
की खबर सार्वजनिक होते ही विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष का एक चेतावनी भरा बयान
आ गया कि मनमोहन सिंह का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। तत्कालीन
प्रधानमंत्री पी।।वी। नरसिंहराव का इस्तीफा स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। 15
मई 1996 तक वे वित्तमंत्री के पद पर रहे। 1996 से 1998 तक का यही 2 वर्ष का समय था
जब दूसरी बार मनमोहन सिंह किसी सरकारी पद पर नहीं थे। सनद रहे कि इस अवधि में
मनमोहन सिंह के चेले पी। चिदंबरम वित्त मंत्री रहे। 1998 में मनमोहन सिंह को
सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी और अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेताओं को दरकिनार कर
राज्य सभा में विपक्ष का नेता बना दिया। प्रधानमंत्री बनने तक वे इस पर बने रहे।
1971 से 2012 तक कुल 41 वर्षों के अपने
कार्यकाल में सिर्फ 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो मनमोहन सिंह भारत के अर्थतंत्र के
नियंता बने रहने की स्थिति में रहे। ऐसे में यदि यह देश आज भी आर्थिक रूप से बदहाल
है तो इसका ठीकरा क्या जनता के माथे पर फोड़ा जा सकता है?
निचले पायदान पर
भारतरू बीते सप्ताह दुनिया के उन 36 देशों का एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है जिन
देशों में दुनिया के कुपोषित बच्चों की 90 फीसदी आबादी बसती है। उस सूची में भारत, अंगोला, कैमरून, कांगो और यमन जैसे
देशों के साथ सबसे निचली पायदान पर है। बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान
जैसे पड़ोसी देशों के कुपोषित बच्चों की हालत भी भारतीय बच्चों से इस रिपोर्ट में
बेहतर बताई गई है। यदि मनमोहन सिंह सचमुच आर्थिक तारणहार हैं तो हमारी भावी पीढ़ी
की इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? ‘सेव दि चिल्ड्रेन’ नामक अभियान का
दावा है कि देश के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और देश की महिलाओं और
बच्चों को होने वाली 70 फीसदी बीमारियां कुपोषणजन्य हैं। क्या 21 वर्षों के आर्थिक
उदारीकरण का यही इष्ट था? तिस पर मनमोहन सिंह की सरकार संसदीय लोकतंत्र के हर स्तंभ की
अवमानना पर आमादा है। जुलाई 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने के लिए
संसद में ‘वोट के
बदले नोट’ का खेल रचा
कर संसद की अवमानना की गई। विपक्ष के विरोध के बावजूद नवीन चावला को मुख्य
निर्वाचन आयुक्त के पद पर नियुक्त कर निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता को सदिंग्ध किया
गया। 2012 के उत्तर प्रदेश चुनावों के समय निर्वाचन आयोग से सरकार के समन्वय के
लिए जवाबदेह कानून मंत्रालय के प्रभारी सलमान खुर्शीद ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त
एस।वाई। कुरेशी की चेतावनी को दरकिनार कर चुनौती तक दे डाली कि ‘अगर उन्हें चुनाव
आयोग सूली पर भी लटका दे तो वे यह सुनिश्चित करेंगे कि पसमांदा मुसलमानों को आराण
मिले।’ निर्वाचन
आयोग की अवमानना के बाद खुर्शीद को मंत्रिमंडल से निकालने के बजाय मनमोहन सिंह ने
उन्हें प्रश्रय दिया। केंद्रीय सतर्कता आयोग एक संवैधानिक पद है। उच्चस्तरीय चयन
समिति में मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति पर लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता
सुषमा स्वराज ने पामोलीन तेल घोटाले में फंसे पी।जे। थॉमस की नियुक्ति का खुलकर
विरोध किया। फिर भी उस पद पर मनमोहन सिंह ने थॉमस को तब तक नियुक्त रखा जब तक
सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस की नियुक्ति को खारिज करने का आदेश नहीं दिया। सीवीसी पद की
भी मनमोहन सिंह ने अवमानना कर दी। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर जब सर्वाेच्च
न्यायालय ने कड़ा रूख अपनाया तब प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने न्यायपालिका
की सक्रियता के खिलाफ बयान देकर उसे भी चुनौती दे दी।
सीएजी को चुनौतीरू
इन दिनों मनमोहन सिंह उस महालेखा नियंत्रक (सीएजी) को चुनौती दे रहे हैं जिसे देश
के संविधान निर्माता भारतरत्न डॉ। भीमराव अंबेडकर ने महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था
करार दिया है। 30 मई 1949 को संविधान सभा की बैठक में डॉ। अंबेडकर ने कहा था- ‘मेरा मानना है कि
सीएजी का कार्य न्यायपालिका के कार्य से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।’ डॉ। अंबेडकर के इस
निष्कर्ष के बाद ही संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 के तहत सीएजी का गठन किया गया।
सीएजी पर प्रधानमंत्री न केवल खुद प्रहार करते आए हैं बल्कि उनके मंत्री भी उसे
आंखें दिखा रहे हैं। मनमोहन सिंह न जनहित की कसौटी पर खरे उतरते हैं, न ही संवैधानिक
संस्थाओं का सम्मान करने को तैयार हैं। वह केवल सत्तालोलुपता के चलते विश्व बैंक
और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की चाकरी पर आमादा हैं। फिर भी उन्हें हमारा देश
क्यों झेलने को मजबूर है?
(लेखक मुंबई से
प्रकाशित सामना के कार्यकारी संपादक हैं)
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