दीया घर में ही
नहीं, घट में भी
जले
(ललित गर्ग)
दीपावली का पर्व
ज्योति का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म साक्षात्कार का
पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल
को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर
हो जाती है, लेकिन
बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक देदीप्यमान
एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदासजी ने कहा था-‘बाहर से तो कुछ न
दीसे, भीतर जल
रही जोत’।
जो महापुरुष उस
भीतरी ज्योति तक पहुँच गए, वे स्वयं ज्योतिर्मय बन गए। जो अपने भीतरी आलोक से आलोकित हो
गए, वे सबके
लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया, वे अनंत शक्तियों
के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दीवाली को मनाया, लोगों ने उनके
उपलक्ष में दीवाली का पर्व मनाना प्रारंभ कर दिया।
भगवान महावीर का
निर्वाण दिवस-दीपावली, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का आसुरी शक्तियों पर विजय के
पश्चात अयोध्या आगमन का ज्योति दिवस-दीपावली, तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक माँ काली की
उपासना का पर्व-दीपावली, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना का पर्व-दीपावली, ऋद्धि-सिद्धि, श्री और समृद्धि का
पर्व-दीपावली, आनंदोत्सव
का प्रतीक वात्सायन का शंृगारोत्सव-दीपावली, ज्योति से ज्योति जलाने का पर्व-दीपावली।
पर्व एक पर्याय अनेक-दीपावली के इस पर्व का प्रत्येक भारतीय उल्लास एवं उमंग से
स्वागत करता है। यह पर्व हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की गौरव गाथा है। प्रत्येक
भारतीय की रग-रग में यह पर्व रच-बस गया हैं
भगवान महावीर ने
दीपावली की रात जो उपदेश दिया उसे हम प्रकाश पर्व का श्रेष्ठ संदेश मान सकते हैं।
भगवान महावीर की यह शिक्षा मानव मात्र के आंतरिक जगत को आलोकित करने वाली है।
तथागत बुद्ध की अमृत वाणी ‘अप्पदीवो भव’ अर्थात ‘आत्मा के लिए दीपक
बन’ वह भी इसी
भावना को पुष्ट कर रही है। इतिहासकार कहते हैं कि जिस दिन ज्ञान की ज्योति लेकर
नचिकेता यमलोक से मृत्युलोक में अवतरित हुए वह दिन भी दीपावली का ही दिन था।
यद्यपि लोक मानस
में दीपावली एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर
भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना प्रसंगों से इस पर्व
की महत्ता जुड़ी है,
वे अध्यात्म जगत के शिखर पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व
लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अनूठा पर्व है।
यह बात सच है कि
मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी
माँगा। ‘तमसो मा
ज्योतिगर्मय’ भक्त की
अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश
की ओर ले चल इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा
कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से
घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करें, सार्थक नहीं हुआ
करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक
माना है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया-‘नाणं पयासयरं’ अर्थात ज्ञान
प्रकाशकर है।
हमारे भीतर अज्ञान
का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे
बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते
हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता
केवल भीतर के अंधकार मोह-मूर्च्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और
आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं
को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।
आतंकवाद, भय, हिंसा, प्रदूषण, अनैतिकता, ओजोन का नष्ट होना
आदि समस्याएँ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य के सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आखिर इन
समस्याओं का जनक भी मनुष्य ही तो है। क्योंकि किसी पशु अथवा जानवर के लिए ऐसा करना
संभव नहीं है। अनावश्यक हिंसा का जघन्य कृत्य भी मनुष्य के सिवाय दूसरा कौन कर
सकता है? आतंकवाद की
समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता जब तक मनुष्य अनावश्यक हिंसा को छोड़ने का प्रण
नहीं करता।
मोह का अंधकार
भगाने के लिए धर्म का दीप जलाना होगा। जहाँ धर्म का सूर्य उदित हो गया, वहाँ का अंधकार टिक
नहीं सकता। एक बार अंधकार ने ब्रह्माजी से शिकायत की कि सूरज मेरा पीछा करता है।
वह मुझे मिटा देना चाहता है। ब्रह्माजी ने इस बारे में सूरज को बोला तो सूरज ने
कहा-मैं अंधकार को जानता तक नहीं, मिटाने की बात तो दूर, आप पहले उसे मेरे
सामने उपस्थित करें। मैं उसकी शक्ल-सूरत देखना चाहता हूँ। ब्रह्माजी ने उसे सूरज
के सामने आने के लिए कहा तो अंधकार बोला-मैं उसके पास कैसे आ सकता हूँ? अगर आ गया तो मेरा
अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
हालाँकि दीपावली एक
लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार
को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूर्च्छा के
अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली के मौके पर सभी आमतौर से अपने घरों की
साफ-सफाई, साज-सज्जा
और उसे संवारने-निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार अगर भीतर चेतना के आँगन पर
जमे कर्म के कचरे को बुहारकर साफ किया जाए, उसे संयम से सजाने-संवारने का प्रयास किया
जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित कर दिया जाए तो मनुष्य
शाश्वत सुख, शांति एवं
आनंद को प्राप्त हो सकता है। महान दार्शनिक संत आचार्य श्री महाप्रज्ञ लिखते
हैं-हमें यदि धर्म को, अंदर को प्रकाश को समझना है और वास्तव में धर्म करना है तो
सबसे पहले इंद्रियों को बंद करना सीखना होगा। आँखें बंद, कान बंद और मुँह
बंद-ये सब बंद हो जाएँगे तो फिर नाटक या टी0वी0 देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। नाटक देखने
की जरूरत उन्हें पड़ती है, जो अंतर्दर्शन में नहीं जाते। यदि आप केवल आधा घंटा के लिए
सारी इंद्रियों को विश्राम देकर बिलकुल स्थिर और एकाग्र होकर अपने भीतर झाँकना
शुरू कर दें और इसका नियमित अभ्यास करें तो एक दिन आपको कोई ऐसी झलक मिल जाएगी कि
आप रोमांचित हो जाएँगे। आप देखेंगे-भीतर का जगत कितना विशाल है, कितना आनंदमय और
प्रकाशमय है। वहाँ कोई अंधकार नहीं है, कोई समस्या नहीं है। आपको एक दिव्य प्रकाश
मिलेगा।
दीपावली पर्व की
सार्थकता के लिए जरूरी है, दीये बाहर के ही नहीं, दीये भीतर के भी जलने चाहिए। क्योंकि दीया
कहीं भी जले उजाला देता है। दीए का संदेश है-हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन
दें, क्योंकि
पलायन में मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है, जबकि परिवर्तन में
विकास की संभावनाएँ जीवन की सार्थक दिशाएँ खोज लेती हैं। असल में दीया उन लोगों के
लिए भी चुनौती है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, दिशाहीन और
चरित्रहीन बनकर सफलता की ऊँचाइयों के सपने देखते हैं। जबकि दीया दुर्बलताओं को
मिटाकर नई जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प है। (साई फीचर्स)
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