श्राद्ध कर्म
(पंडित दयानन्द शास्त्री)
नई दिल्ली (साई)। पितृ अत्यंत दयालु तथा कृपालु होते हैं, वह अपने
पुत्र-पौत्रों से पिण्डदान तथा तर्पण की आकांक्षा रखते हैं। श्राद्ध तर्पण आदि
द्वारा पितृ को बहुत प्रसन्नता एवं संतुष्टि मिलती है। पितृगण प्रसन्न होकर दीर्घ
आयु, संतान सुख, धन-धान्य, विद्या, राजसुख, यश-कीर्ति, पुष्टि, शक्ति, स्वर्ग एवं मोक्ष
तक प्रदान करते हैं।
कैसे प्राप्त होता है श्राद्घ
यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्घ में दी गई अन्न आदि
सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती है। विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद
जीव को भिन्न योनियां प्राप्त होती हैं। कोई देवता, पितृ, प्रेत, हाथी, चींटी तथा कोई
चिनार का वृक्ष या तृण बनता है। श्राद्घ में दिए गए छोटे से पिंड से हाथी का पेट
कैसे भर सकता है। छोटी-सी चींटी इतना बड़ा पिंड कैसे खा सकती है और देवता तो अमृत
से तृप्त होते हैं। पिंड से उन्हें कैसे तृप्ति मिल सकती है।
शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके
नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो
जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप
में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण
रूप में, सर्प योनि
में वायु रूप में,
यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस
के रूप में, प्रेत योनि
में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।
जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्घकाल उपस्थित हो गया है, तो वे एक-दूसरे का
स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्घस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के
साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते
हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं।
विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते
हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्घ नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः
उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्घ
विमुख नहीं होना चाहिए। (साई फीचर्स)
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