बुधवार, 12 दिसंबर 2012

न्यायालयों की परवाह भी नहीं रही सरकार को!


0 संदर्भ: सर पर मैला ढोने की परंपरा

न्यायालयों की परवाह भी नहीं रही सरकार को!

(लिमटी खरे)

जब स्कूल कालेज में विद्यार्थी राजनीति शास्त्र का अध्ययन करते हैं तब उन्हें समझाया जाता है कि देश में न्यायपालिका सर्वोपरि है। जब वह बच्चा पढ लिखकर फारिग होता है तब वास्तविक जीवन में उसे एसा प्रतीत नहीं होता है। रोजमर्रा के जीवन में जब वह मीडिया से सरकार के साथ रूबरू होता है तब उसे पता चलता है कि देश में सरकार से बड़ा शायद ही कोई है। बार बार माननीय न्यायालयों के चेताने के बाद भी सरकार वादे पर वादे किए जा रही है। इस साल अगस्त में देश की सबसे बड़ी अदालत ने देश की सबसे बड़ी पंचायत को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि भारत गणराज्य की स्थापना और आजादी के साढ़े छः दशक पूरे होने के बाद सर पर मैला ढोने की प्रथा का लागू रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। विडम्बना ही है कि मनुष्य की विष्ठा आज भी मानव द्वारा ही ढोई जा रही है। सरकारों ने इस मामले में अब तक कितनी राशि व्यय की है इस बारे में अगर जानकारी एकत्र की जाए तो देशवासियों के हाथों के तोते उड़ जाएंगे कि विष्ठा के मामले में भी देश के नीतिनिर्धारकों ने गफलत कर कमाई करने से अपने आप को नहीं रोका जा सका है।

एक बार फिर देश की सबसे बड़ी अदालत ने सर पर मैला उठाने की परंपर पर अपनी तल्ख नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा है कि देश में सर पर मैला ढोने की कुप्रथा बरकरार रहने पर मंत्री माफी मांगते हैं लेकिन सरकारी अधिकारी इसे खत्म करने के लिए कारगर कार्रवाई नहीं करते हैं।
न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की खंडपीठ ने सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म करने और ऐसे सफाईकर्मियों के पुनर्वास हेतु कारगर कार्रवाई नहीं करने पर हरिद्वार के डीएम को आड़े हाथ लिया। जजों ने कहा, ‘यदि प्रेस रिपोर्ट सही हैं तो यहां तक कि आपके केंद्रीय मंत्री ने भी मैला ढोने की कुप्रथा जारी रहने पर माफी मांगी है।इसके साथ ही कोर्ट ने डीएम को उन स्थानों का निजीरूप से दौरा करने का निर्देश दिया जहां यह कुप्रथा अब भी जारी है और ऐसे सफाईकर्मियों के पुनर्वास के लिए तत्काल आवश्यक कमद उठायें।
न्यायाधीश उन मीडिया रिपोर्ट का जिक्र कर रहे थे जिनमें केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने मैला ढोने के मसले पर कल राष्ट्र से माफी मांगी थी। जजों ने कोर्ट में मौजूद डीएम से कहा, ‘कृपया ध्यान दीजिए। आप युवा अधिकारी है। अपनी जिंदगी खराब मत करो।अदालत ने झूठा हलफनामा दाखिल करने के मामले में चार दिसंबर को जिलाधिकारी को तलब किया था। जिलाधिकारी ने इस हलफनामे में कहा था कि उसके जिले में सिर पर मैला ढोने वाला कोई नहीं है लेकिन सफाई कर्मचारी आंदोलन ने इस दावे को गलत बताया था। इस गैर सरकारी संगठन का कहना था कि जिले में अभी भी करीब 174 सिर पर मैला ढोने वाले कर्मी हैं।
इतना ही नहीं इस साल अगस्त में उच्चतम न्यायालय ने सिर पर मैला ढोने की प्रथा प्रतिबंधित करने में विफल रहने पर केन्द्र को फटकार लगाई थी। अदालत ने कहा था कि केन्द्र सरकार ने बार-बार वादे किये कि वह इस प्रथा को समाप्त करने के लिए संबंधित कानून में संशोधन करेगी, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आजादी के ६५ वर्ष बाद भी सिर पर मैला ढोने की प्रथा जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। न्यायमूर्ति एच एल दत्तू और सी के प्रसाद की पीठ ने अतिरिक्त सोलिसीटर जनरल हरेन रावल से कहा है कि २७ अगस्त को अदालत को बताया जाए कि क्या इस प्रथा को समाप्त करने के बारे में संसद के मॉनसून सत्र में संबंधित विधेयक लाया जाएगा। बावजूद इसके मानसून सत्र तो छोड़िए शीत सत्र भी परवान चढ़ रहा है।
इसके पहले वर्ष 2009 में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्रीमती सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उŸार में बताया था कि मैला उठाने की परम्परा को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए रणनीति बनाई गई है। उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले व्यक्तियों के पुनर्वास और स्वरोजगार की नई योजना को जनवरी, 2007 में शुरू किया गया था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत अभी देश के 1.23 लाख मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना है।
दुख तो तब होता है कि जब सर पर मैला ढोने की परंपरा आज भी बदस्तूर जारी होने की बात मीडिया की सुर्खियां बनती है ओर सरकार में बैठे नुमाईंदे इस मामले में गोल मोल जवाब देकर देश को गुमराह करते हैं। उससे अधिक पीड़ा उस वक्त होना लाजिमी है जब विपक्ष में बैठे जनसेवक भी सरकार की हां में हां मिलाकर उनकी गलत बातों का समर्थन प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर करने लगते हैं।
2011 के आरंभ में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक ने मीडिया को मैनेज किया और घराना पत्रकारिता वाले मीडिया ने मुकुल वासनिक की तारीफों में कशीदे गढ़कर यह तान छेड़ दी कि मैला ढोने वालों का लेखा जोखा मांगेंगे वासनिक। इस तरह की गैर कानूनी एवं सामंती प्रथा को समाप्त करने के लिए वासनिक ने उस वक्त अनेक दलीलें भी दी थीं।
बकौल वासनिक मैला ढोनेकी प्रथा से मुक्ति के लिए बने 1993 के कानून का सही ढंग से पालन ना हो पाने के चलते यह कुप्रथा कायम है। उस वक्त सफाई कर्मचारियों के प्रतिनिधियों ने एक प्रतिवेदन वासनिक को सौंपा था जिसमें देश के 14 राज्यों में कहां कहां, किन किन जिलों मोहल्लों में सफाईकर्मी मैला ढोने की प्रथा जैसे अमानवीय कार्य में लगे हैं का फोटो सहित पूरा ब्योरा सौंपा था।
इस संबंध में सफाई कर्मचारियों के आव्हान पर कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने वजीरे आज़म डॉ।मनमोहन सिंह को एक पत्र भी लिखा था। कांग्रेस इस सामंती कुप्रथा या सफाई कर्मचारियों के लिए कितनी संजीदा है इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि लगभग दो साल बीतने के बाद भी फोटो सहित पूरे ब्योरे के बाद भी कांग्रेस की सरकार ने इस बारे में कोई पहल करना उचित नहीं समझा। वहीं सोनिया गांधी के दिखावटी पत्र पर सरकार ने कोई कार्यवाही ना कर दर्शा दिया है कि सरकार की मंशा भी इस सामंती कुप्रथा से निपटने की नहीं है।
विपक्ष में बैठे दलों की कुंभकर्णीय निंद्रा नहीं टूटी पर सफाई कर्मियों के दबाव में आकर मजबूरी में सरकार को दिखावे के लिए कुछ करना पड़ा। बताते हैं कि दिसंबर 2011 में सफाई कर्मियों के सचित्र ब्योरे को ही सरकार ने एक एनजीओ को लंबी राशि देकर तैयार करवाना बताया जाकर देश के लगभग 15 राज्यों के मुख्य सचिवों को बुलवा लिया। नतीजा फिर ढाक के तीन पात ही रहा।
इसी बीच इस साल जनवरी में एनसीआर से प्रकाशित एक प्रमुख समाचार पत्र ने यह खबर प्रकाशित कर सनसनी फैला दी कि महज एक रोटी और दस रूपए महीने के पारिश्रमिक पर आज भी राजस्थान में सर पर ढुल रहा है मैला। इस खबर से कुछ सनसनी तो फैली पर चूंकि यह मामला मीडिया के लिए चटखारे का नहीं था इसलिए खबर अंदर के पन्नों ही दबकर रह गई।
कहा जाता है कि महज एक रोटी और दस रूपए महीना के एवज में राजस्थान के टोंक में सर पर मैला आज भी ढुल रहा है। यह राजस्थान की कांग्रेस सरकार के लिए शर्म की बात है। टोंक के इरा चौक सहित लगभग आधा दर्जन बस्तियों में यह काम बदस्तूर जारी है इस काम में वहां के लगभग ढाई सौ परिवार लगे हुए हैं।
लोगों की विष्ठा से पैसे कमाने को व्यपार बनाने वाले सुलभ इंटरनेशल के संस्थापक विंदेश्वर पाठक ने भी इस बात को स्वीकारा था कि राजस्थान में यह कुप्रथा जारी है। उनके अनुसार सरकार ने नई दिशाएं नाम की एक योजना आरंभ की थी पर बाद में सरकारी अनुदान के अभाव में इस योजना ने दम तोड़ दिया था।
कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्यकी विष्ठा (मल) को मनुष्य द्वारा ही उठाए जाने की परंपरा इक्कीसवीं सदी में भी बदस्तूर जारी है। देश प्रदेश की राजधानियों, महानगरों या बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को भले ही इस समस्या से दो चार न होना पड़ता हो पर ग्रामीण अंचलों की हालत आज भी भयावह ही बनी हुई है।
कहने को तो केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, वस्तुतः यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की जेब में जाता है, यह किसी से छुपा नहीं है। करोड़ों अरबों रूपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयो के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर दशक दर दशक बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया जिसकी अपेक्षा थी।
सरकारो को देश के युवाओं के पायोनियर रहे महात्मा गांधी से सबक लेना चाहिए। उस समय बापू द्वारा अपना शौचालय स्वयं ही साफ किया जाता था। आज केंद्रीय मंत्री जगदीसन की सदन में यह स्वीकारोक्ति कि देश के एक लाख 23 हजार मैला उठाने वालों का पुर्नवास किया जाना बाकी है, अपने आप में एक कड़वी हकीकत बयां करने को काफी है।
सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से सरकार के लिए कलंक से कम नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि कस्बों, मजरों टोलों में आज भी एक वर्ग विशेष द्वारा आजीविका चलाने के लिए इस कार्य को रोजगार के रूप में अपनाया जा रहा है।
सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो चुकने थे। वस्तुतः एसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने की प्रेरणा लिए होर्डिंग्स और विज्ञापनों की भरमार है। अगर देश में हर जगह शुष्क शौचालय मौजूद हैं तो फिर इन विज्ञापनों की प्रसंगिकता पर सवालिया निशान क्यों नहीं लगाए जा रहे हैं? क्यों सरकारी धन का अपव्यय इन विज्ञापनों के माध्यम से किया जा रहा है?
उत्तर बिल्कुल आईने के मानिंद साफ है, देश के अनेक स्थान आज भी शुष्क शौचालय विहीन चिन्हित हैं। क्या यह आदी सदी से अधिक तक देश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता नहीं है? सत्ता के मद में चूर राजनेताओं ने कभी इस गंभीर समस्या की ओर नज़रें इनायत करना उचित नहीं समझा है। यही कारण है कि आज भी यह समस्या कमोबेश खड़ी ही है।श्विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर हम आईटी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने का दावा कर चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौच के मामले में आज भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं को ही अंगीगार किए हुए हैं। इक्कीसवीं सदी के इस युग में आज जरूरत है कि सरकार जागे और देश को इस गंभीर समस्या से निजात दिलाने की दिशा में प्रयास करे। (साई फीचर्स)

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