धूर्त राजनीति और
मीरजाफर मनमोहन
(संजय द्विवेदी / विस्फोट डॉट काम)
मीरजाफर ने लार्ड
क्वाइव के नवाब बनने के प्रस्ताव को स्वीकार न किया होता तो शायद भारत में ईस्ट
इंडिया कंपनी की नींव नहीं पड़ती। प्लासी के युद्ध में मीरजाफर की गद्दारी ने भारत
में ईस्ट इंडिया कंपनी को घुसने और अगले दो सौ सालों तक अंग्रेजों की गुलामी के
लिए मजबूर कर दिया। अंग्रेजों से तो आजादी मिल गई लेकिन मीरजाफरों से मुक्ति नहीं
मिली। हमारे युग के मीरजाफर मनमोहन सिंह ने आज से बीस साल पहले प्लासी का एक युद्ध
लड़ा था और आर्थिक सुधारों के नाम पर देश की आर्थिक संप्रभुता बहुराष्ट्रीय
कंपनियों के हाथ गिरवी रख दिया था। जो कसर रह गई थी, उसे वे अब पूरा कर
रहे हैं।
बीस साल पहले और अब
बीस साल बाद एक बार फिर प्लासी का मैदान सजा तो मनमोहन सिंह ने मीरजाफर की भूमिका
अख्तियार कर ली। एक तरफ जब पूरे देश में खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश के विरोध
में प्रदर्शन चल रहे थे, ठीक उसी दिन उन प्रदर्शनों को ठेंगा दिखाते हुए मनमोहन सिंह
ने विदेशी निवेश की अधिसूचना भी जारी करवा दी. 20 सितंबर, 2012 के भारत बंद में
अड़तालीस (48) से ज्यादा
छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां सहभागी होती हैं किंतु सरकार को इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता। वह अपने फैसले पर एक कदम और आगे बढ़ती है और विरोध का वह जवाब देश को देती है
जो सीधे तौर पर विदेशी कंपनियों का हित साधने के लिए ही गढ़ा गया है।
सरकारें बदलीं पर
नहीं बदले रास्ते
हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की
सरकार जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरूआत
की। तब राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया। लेकिन जनता के गले ये
बातें नहीं उतरीं यानि जनराजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला, सुधारों के चौंपियन
आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। किंतु
अद्भुत कि यह कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् भी वही
करते हैं जो पिछली सरकार कर रही थी। वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर अटलबिहारी
वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया में निवेश की
अनुमति, केंद्र में
पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और जोरशोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला
गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक स्व.दत्तोपंत ढेंगड़ी ने
तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद इस
दौर में साफ नजर आए। सरकारी कंपनियां घड़ल्ले से बेची गयीं और मनमोहनी एजेंडा इस
सरकार का भी मूलमंत्र रहा। अंततः इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच
भाजपा की सरकार भी विदा हो गयी। सरकारें बदलती गयीं किंतु हमारी अर्थनीति पर
अमरीकी और कारपोरेट प्रभाव कायम रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा।
फिर कांग्रेस लौटती है और देश के दुर्भाग्य से उन्हीं डा. मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम् जैसों के
हाथ देश की कमान आ जाती है जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते
और चलाते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता
ने हर सरकार को उलट कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, किंतु हमारी
राजनीति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
मुद्दों के साथ
ईमानदार नहीं है विपक्ष
खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई का सवाल जिससे 5 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में
एक सामान्य सा सवाल है। राजनीतिक दल कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए
राजनीतिक लाभ तो उठाना चाहते हैं किंतु वे ईमानदारी से अपने मुद्दों के साथ नहीं
हैं। यह दोहरी चाल देश पर भारी पड़ रही है। सरकार की बेशर्मी देखिए कि आज के
राष्ट्रपति और तब के वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी दिनांक सात दिसंबर, 2011 को संसद में यह
आश्वासन देते हैं कि आम सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नहीं
लाएंगें। किंतु सरकार अपना वचन भूल जाती है और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल
रही है, खुदरा
एफडीआई को देश पर थोप देती है। आखिर क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है? जहां राजनीतिक दलों
की सहमति, जनमत का
कोई मायने नहीं है। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ
दिखावा है। क्योंकि आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति अरसे से अलग-अलग चल रहे हैं।
यानि हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है किंतु अर्थनीति को चलाने वाले लोग
कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि मुख्यधारा के राजनीतिक
दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आमसहमति बन चुकी है। आज कोई
दल यह कहने की स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता में आया तो खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई लागू नहीं होगा। क्योंकि सब किसी न किसी समय सत्ता सुख भोग चुके हैं और
रास्ता वही अपनाया जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद
आयी तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार सबने वही
किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के
दबावों, खासकर
अमरीका और कारपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले पा रहे हैं।
अपनी कमजोर सरकारों को गंवानें की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमरीका और
कारपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी है। क्या यह साधारण है कि कुछ महीनों तक
पश्चिमी और अमरीकी मीडिया द्वारा निकम्मे और ‘अंडरअचीवर’ कहे जा रहे हमारे
माननीय प्रधानमंत्री आज एफडीआई को मंजूरी देते ही उन सबके लाडले हो गए। यह ऐसे ही
है जैसे फटा पोस्टर निकला हीरो। लेकिन पश्चिमी और अमरीकी मीडिया जिस तरह अपने
हितों के लिए सर्तक और एकजुट है क्या हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के
लिए सक्रिय और ईमानदार है?
विरोध करेंगें पर
सरकार से चिपके रहेंगें
यह देखना विलक्षण
है कि जो राजनीतिक दल सत्ता की इस जनविरोधी नीति के खिलाफ सड़क पर हैं, वही सरकार को
गिराने के पक्ष में नहीं हैं। मुलायम सिंह यादव से लेकर एम. करूणानिधि तक यह द्वंद
साफ दिखता है। यानी सत्ता को हिलाए बिना वे जनता के दिलों में उतर जाना चाहते हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या किसी जनविरोधी सरकार का पांच साल चलना जरूरी है ? निरंतर भ्रष्टाचार
व महंगाई के सवालों से घिरी, जनविरोधी फैसले करती सरकार आखिर क्यों चलनी
चाहिए? यदि इसे
चलना चाहिए तो डा. राममनोहर लोहिया यह बात क्यों कहा करते थे कि “जिंदा कौमें पांच
साल तक इंतजार नहीं करतीं।” किंतु आप देखिए डा. लोहिया और लोकनायक
जयप्रकाश के चेले उप्र से लेकर बिहार तक सौदेबाजी में लगे हैं। मुलायम सिंह यादव
सरकार को बचाएंगें चाहे वो कुछ भी करे क्योंकि उनके पास सांप्रदायिक ताकतों को
रोकने का एक शाश्वत बहाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार कह रहे हैं जो
उनके राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देगा उसके साथ हो लेंगें।आखिर हमारी राजनीति
को हुआ क्या है? आखिर
राजनीतिक दलों के लिए क्या देश के लोग एक तमाशा हैं कि आप सरकार को चलाने में मदद
करें और सड़कों पर सरकार के खिलाफ गले भी फाड़ते रहें। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की
नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं। क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के
प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। सत्ता पक्ष की नीतियों से देश लुटता रहे किंतु वे सांप्रदायिक
तत्वों को रोकने के लिए घोटाले पर घोटाले होने देंगें।
संगठन और सरकार के
सुर अलग-अलग
क्या यह साधारण है
कि हर दल का संगठन आम आदमी की बात करता है और उसी की सरकार खास आदमी, अमरीका और कारपोरेट
की पैरवी कर रही होती है। आप देखें तो सोनिया गांधी गरीब समर्थक नीतियों की पैरवी
करती दिखतीं है, राहुल
गांधी को ‘कलावतियों’ की चिंता है वे
दलितों के घर विश्राम कर रहे हैं, किंतु उनकी सरकार गरीबों के मुंह से निवाला
छीनने वाली नीतियां बना रही है। भाजपा की सरकार केंद्र में उदारीकरण की आंधी ला
देती है, जबकि उसका
मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वदेशी और स्वावलंबन की बातें करता रह जाता
है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सुप्रीमो प्रकाश कारात विचारधारा से समझौता
न करने की बात करते हैं किंतु उनके मुख्यमंत्री रहे बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य
नवउदारवादी प्रभावों से खुद को रोक नहीं पाते और नंदीग्राम रच देते हैं। मुलायम
सिंह भी लोहिया, जयप्रकाश
और चरण सिंह का नाम लेते नहीं अधाते किंतु वे भी ‘कारपोरेट समाजवाद’ के वाहक बन जाते
हैं। जब कारपोरेट समाजवाद उन्हें ले डूबता है तब वे ‘अमर सिंह एंड कंपनी’ से मुक्ति लेते
हैं। विदेशी धन और निवेश के लिए लपलपाती राजनैतिक जीभें हमें चिंता में डालती हैं।
क्योंकि देश में जो बड़े धोटाले हुए हैं वे हमारी सारी आर्थिक प्रगति को पानी में
डाल देते हैं। अमरीका के बाजार को संभालने के लिए हमारी सरकार का उत्साह चिंता में
डालता है। ओबामा के प्रति यह भक्ति भी चिंता में डालती है। यह तब जब यह सारा कुछ
उस पार्टी के राज में घट रहा है जो महात्मा गांधी का नाम लेते नहीं थकती।
आज भी जो लोग इन
फैसलों के खिलाफ हैं, उनकी ईमानदारी भी संदेह के दायरे में है। वे चाहे मुलायम सिंह
हो या करूणानिधि या कोई अन्य। एक साल में चार बार भारत बंद कर रहे दल क्या वास्तव
में जनता के सवालों के प्रति ईमानदार है? सारी की सारी राजनीति इस समय जनविरोधी और
मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने के लिए मौन साधे खड़ी है। 2014 के चुनावों के
मद्देनजर यह विपक्ष की दिखती हुयी उछल-कूद हमें प्रभावित करने के लिए है, किंतु क्या
जिम्मेदारी से हमारे राजनीतिक दल यह वादा करने की स्थिति में हैं कि वे खुदरा
क्षेत्र में एफडीआई को मंजूरी नहीं देंगें। सही मायने में भारत के विशाल व्यापार
पर विदेशियों की बुरी नजर पड़ गयी है। इस बार लार्ड क्वाइव और मैकाले की रणनीतियों
से नहीं, हमें अपनों
से हारना है। हार तय है, क्योंकि हममें जीत का माद्दा बचा नहीं है। प्रतिरोध नकली हो
चुके हैं और प्रतिरोध के सारे हथियार भोथरे हो चुके हैं। प्लीज, इस बार भारत की
पराजय का दोष विदेशियों को मत दीजिएगा।
(लेखक माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से
जुडे हैं)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें