पार्टी के आगे छोटे
पड़ते संवैधानिक पद!
(लिमटी खरे)
देश में हर समय
कहीं ना कहीं चुनाव होते ही रहते हैं कभी लोकसभा, तो कभी विधानसभा, या स्थानीय निकाय, मंडी, पंचायत आदि के
चुनाव सतत होते ही रहते हैं। इन चुनावों में नैतिकता को अब महज भाषणों तक ही सीमित
कर दिया गया है। राज्यों में पार्टियों के बेनर पोस्टर्स या प्रोग्राम्स के
विज्ञापनों में विधानसभा अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के फोटो लगाकर संवैधानिक मर्यादाओं
को तार तार किया जा रहा है। एक समय था जब दिल्ली में चरतीलाल गोयल विधानसभा के अध्यक्ष
हुआ करते थे, उस दौरान
उन्होंने पार्टी के प्रचार आदि कार्यों को तिलांजली देकर संवेधानिक पद की गरिमा
बरकरार रखी थी। उसी दौरान विधानसभा उपाध्यक्ष आलोक कुमार को अपने पद से इसलिए
त्यागपत्र देना पड़ा था, क्योंकि उपाध्यक्ष रहते हुए वे वकालत कर रहे थे. . .
क्या लोकसभा या
विधानसभा अध्यक्ष या उपाध्यक्ष किसी दल विशेष के लिए चुनाव प्रचार कर सकते हैं? इस संबंध में
कानूनविदों की विभिन्न प्रकार की राय सामने आ रही है। इन संस्थाओं के अध्यक्ष और
उपाध्यक्ष को वस्तुतः दल विशेष के लिए चुनाव प्रचार नहीं करना चाहिए।
जिस तरह भारत
गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति का चुनाव किसी राजनैतिक दल के सदस्य का ही किया
जाता है, किन्तु जब
वह शपथ ग्रहण करता है, उसके बाद वह किसी दल विशेष का सदस्य नहीं रह जाता है, फिर वह समूचे
राष्ट्र का हो जाता है। ठीक इसी तरह विधानसभा या लोकसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष
का चयन किसी दल से ही किया जाता है, पर शपथ ग्रहण के उपरांत वह सदन का नेता होता
है।
लोकसभा या विधानसभा
के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों ही पद संवैधानिक होते हैं, इस मान से इन पर
आसीन नेताओं को किसी भी तरह के राजनैतिक कार्यक्रमों में शिरकत करने से अपने आप को
बचाकर रखना चाहिए। संविधान के जानकारों का मानना है कि इस तरह के संवैधानिक पदों
पर आसीन लोगों को किसी दल या राजनीति से उपर ही माना जाता है। अमूमन माना जाता है
कि इस तरह के संवैधानिक पदों पर बैठे नेताआंे पर यह जवाबदारी स्वतः ही आ जाती है
कि जब तक वे उस पद पर रहंे तब तक वे किसी राजनैतिक पार्टी का चुनाव प्रचार न करें।
इस तरह कि
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तियों में वर्ष 2009 में दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष योगानंद
शास्त्री ने पिछले दिनांे कांग्रेस के पक्ष में खुलकर प्रचार किया। वहीं दूसरी ओर
दिल्ली के ही विधानसभा उपाध्यक्ष अमरीश गौतम भी योगानंद शास्त्री के कंधे से कंधा
मिलाकर कांग्रेस के प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार में जुटे रहे। जब देश की
राजधानी दिल्ली में विधानसभा का यह आलम है तो अन्य प्रदेशों की स्थिति समझी जा
सकती है। हाल ही में मध्य प्रदेश में हो रहे मण्डी चुनावों में भी विधानसभा
अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की सक्रियता किसी से छिपी नहीं है।
पार्टी के
कार्यक्रमों में विधानसभा अध्यक्ष ईश्वर दास रोहाणी और विधानसभा उपाध्यक्ष हरवंश
सिंह के फोटो देखकर लगता है मानो संवैधानिक मर्यादाएं तार तार हो चुकी हैं। चूंकि
रोहाणी भाजपा के और हरवंश सिंह कांग्रेस के हैं अतः दोनों ही दल एक दूसरे का विरोध
करने में अपने आप को सक्षम नहीं पाते हैं। पिछले दिनों हरवंश सिंह ठाकुर ने तो
बाकायदा पार्टी के एक प्रोग्राम में सिवनी में शिरकत कर मंच से ‘‘कहां गए कमल नाथ का
पुतला जलाने वाले‘‘
तक कहकर परोक्ष रूप से जनमंच को ललकारा था। वस्तुतः देखा जाए
तो ईश्वर दास रोहाणी और हरवंश सिंह को नैतिकता के आधार पर कांग्रेस और भाजपा के
अधिकृत कार्यक्रमों में जाना ही नहीं चाहिए, किन्तु नैतिकता अब बची ही कहां है?
वैसे तो नैतिकता
यही कहती है कि महामहिम राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, महामहिम राज्यपाल, लोकसभा एवं
विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को राजनैतिक दलों के प्रचार प्रसार से अपने आप
को दूर ही रखा जाना चाहिए। 2009 में राजस्थान में चुरू विधानसभा में भाजपा
प्रत्याशी अरूण चतुर्वेदी ने कांग्रेस प्रत्याशी डॉ.बलराम जाखड़ के फोटो होने पर
चुनाव आयोग के समक्ष आपत्ति दर्ज करवाई थी।
सच ही है जब कोई
राजनैतिक दल का नेता संवैधानिक पद पर विराजमान हो जाए तो उसे कम से कम उस पद की
गरिमा का विशेष ख्याल रखना चाहिए। देश भर में अमूमन हर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के
विधानसभाध्यक्ष अथवा उपाध्यक्षों के फोटो से चुनावी विज्ञापन अटे पड़े हैं। इस तरह
संवैघानिक मर्यादाएं भी तार तार हुए बिना नहीं हैं।
याद पड़ता है कि
संवैधानिक गरिमाओं को बरकरार रखने के लिए अनेक नेताओं ने निहित और पार्टीगत
स्वार्थों को तिलांजली ही दी है। दिल्ली में जब चरतीलाल गोयल विधानसभा के अध्यक्ष
हुआ करते थे, उस दौरान
उन्होंने पार्टी के प्रचार आदि कार्यों को तिलांजली देकर संवेधानिक पद की गरिमा
बरकरार रखी थी। उसी दौरान विधानसभा उपाध्यक्ष आलोक कुमार को अपने पद से इसलिए
त्यागपत्र देना पड़ा था, क्योंकि उपाध्यक्ष रहते हुए वे वकालत कर रहे थे।
कानूनविदों के
अनुसार लोकसभा और विधानसभाओं के अध्यक्ष पद को संवैधानिक पद का दर्जा दिया गया है।
उक्त दोनों ही पद दलगत राजनीति से उपर माने जाते हैं। इसलिए इन पदों पर आसीन
व्यक्तियों को पार्टी के क्रियाकलापों और बैठकांे से दूर रहना चाहिए।
जिस तरह राष्ट्रपति
(किसी पार्टी के नेता को ही इस पद पर बैठाया जाता है, किन्तु निर्वाचन के
उपरान्त वह समूचे देश का प्रमुख होता है) दलगत राजनीति से उपर हो जाता है, उसी तरह लोकसभा या
विधानसभा के अध्यक्षों को दलगत राजनीति से उपर ही होना चाहिए। कानून के जानकार यह
भी कहते हैं कि अगर पार्टी उन्हें कोई राजनैतिक जवाबदारी देती है, तो वे अपने विवेक
के अनुसार पद या जवाबदारी में से एक चुनें, और अगर जवाबदारी चुनते हैं तो पहले पद से
त्यागपत्र देकर उक्त कार्य निष्पादित करें।
वर्तमान में
कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर विराजमान
हैं। आज रायसीना हिल्स से कांग्रेस के लिए संजीवनी जड़ी आने की बातें भी सुनाई दे
जाती हैं। प्रणव मुखर्जी जब कांग्रेसनीत संप्रग सरकार में मंत्री थे तब उनके सामने
भ्रष्टाचार के अनेक मामले सामने आए। उस वक्त नैतिकता के आधार पर भले ही प्रणव
मुखर्जी के सामने देश हित के बजाए पार्टी या सरकार हित प्रमुख रहा होगा, किन्तु आज वे देश
के महामहिम हैं, इस नाते
उन्हें कांग्रेस से मोह त्यागकर निश्चित तौर पर भ्रष्टाचार पर वार करते हुए कदम
उठाने चाहिए। विडम्बना यह है कि आज भी नैतिकता की बातें नेताओं तो छोड़िए संवैधानिक
पदों पर बैठे लोगों के भाषणों तक ही सीमित रह गई हैं।
केंद्र सरकार को एक
कानून बनाना चाहिए जिसमें देश के संवैधानिक पदों की गरिमा अक्क्षुण रखने के लिए
आदर्श आचरण संहिता को सार्वजनिक तौर पर हर विधानसभा या लोकसभा चुनाव के उपरांत
मुनादी पिटवानी चाहिए, ताकि देशवासी भी संवैधानिक पदों पर बैठने वालों पर नियंत्रण
रख सकें, और इसकी
गरिमा बरकरार रह सके। (साई फीचर्स)
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