रक्षा क्षेत्र में
होगे भारत अमरीका के रिश्ते मजबूत
(यशवंत)
वाशिंग्टन डीसी
(साई)। ओबामा का दुबारा जीतना भारत के लिए अच्छे संकेत माने जा सकते हैं। वैसे तो
भारत से रिश्तों को लेकर अमेरिका की पार्टियों में सर्वसम्मति है। चुनाव कोई भी
जीते, भारत से
संबंध पहले जैसे ही रहते हैं। हां, अगर रोमनी जीतते तो ईरान और चीन जैसे मसलों
पर उनकी उग्र राय भारत के लिए मुश्किलें पैदा करतीं। इसलिए राजनयिक हलकों में राहत
महसूस की जा रही है। लेकिन आउटसोर्सिंग पर रोमनी का कुछ उदार होना भारत के आईटी
पेशेवरों को सुकून दे रहा था।
राजनयिक
पर्यवेक्षकों के मुताबिक, भारत से रिश्तों को गहरा करने में अमेरिकी व्यावसायिक समुदाय
की विशेष भूमिका है। भारत-अमेरिका संयुक्त व्यापार परिषद (यूएसआईबीसी) जैसे
संगठनों ने भारत के बाजार में अमेरिका के लिए असीम संभावनाएं देखते हुए दोनों दलों
को भारत से सामरिक रिश्ते मजबूत करने को प्रेरित किया है। मसलन, भारत को परमाणु
मुख्यधारा में लाने के लिए रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की पहल को अमेरिका के
कारोबारी समुदाय ने ही खूब ताकत दी।
भारत के साथ
अमेरिका का व्यापार इस साल 100 अरब डॉलर पार करने का अनुमान है। इतने बड़े
बाजार से जुड़े रहने के लिए जरूरी है कि अमेरिका भारत से सामरिक और राजनीतिक मसलों
पर भी तालमेल बना कर रखे। पर्यवेक्षकों के मुताबिक, भारत को सैनिक
साजोसामान, परमाणु
तकनीक और उपकरणों के निर्यात में अमेरिका ने अग्रणी भूमिका निभाई है। आने वाले
बरसों में दोनों के संबंध, खासकर रक्षा क्षेत्र में और मजबूत दिखेंगे।
ओबामा और रोमनी ने
विदेश नीति पर कोई गर्मागर्म बहस नहीं की क्योंकि अधिकतर मसलों पर दोनों की
नीतियों में कोई फर्क नहीं था। हालांकि रोमनी ने चीन की आर्थिक नीति, अमेरिकी बाजार पर
उसके प्रभुत्व को रोकने और अमेरिका के लिए चीन की सामरिक चुनौती को मुद्दा बनाया।
दक्षिण एशिया को लेकर ओबामा और रोमनी ने एक समान नीति सामने रखी थी। शुरू में
ओबामा ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान नीति के साथ भारत को भी जोड़ दिया था। भारत ने इसका
विरोध किया तो उन्होंने गलती सुधारी। जब ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए तो भारत
ने उन्हें नजरअंदाज किया। इसके बाद अमेरिका ने ईरान प्रतिबंध नीति में ढील देने का
फैसला किया। ओबामा प्रशासन और ईरान के बीच गुपचुप बातचीत का दौर शुरू होने की
रिपोर्टें हैं।
ओबामा ने घरेलू
मोर्चे पर आउटसोर्सिंग को मुद्दा बनाया। लेकिन दूसरे कार्यकाल में वह इसे व्यवहार
में नहीं ला पाएंगे क्योंकि अमेरिकी बिजनस समुदाय ऐसा नहीं चाहता। अमेरिकी बिजनस
को अगर विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनना है तो भारत जैसे देशों के सस्ते मानव
संसाधन का इस्तेमाल करना ही होगा। आर्थिक मंदी के ताजा दौर में अमेरिकी प्रशासन
नहीं चाहेगा कि अमेरिकी बिजनस को दुनिया में कम प्रतिस्पर्धी बनाए।
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