मुहूर्त बोध में
भद्रा विचार
(पंडित दयानन्द शास्त्री)
नई दिल्ली (साई)।
मुहूर्त निकालने में वार, आदि के अतिरिक्त करण का अपना महत्व है। विष्टि नामक करण का ही
दूसरा नाम भद्रा है जो सब प्रकार के शुभ कार्यों में त्याज्य मानी गयी है। लेकिन
कुछ स्थितियों में भद्रा शुभ भी होती है लेकिन कब और कैसे, जानिए इस लेख से।
पंचांग के पांच अंगों में- तिथि, बार, नक्षत्र, योग एवं करण के
द्वारा अनेकानेक शुभाशुभ मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन-जिन तिथियों में
जिस स्थिति में श्विष्टि करणश् रहता है, उसे भद्राकाल कहा जाता है। मुहूर्त विचार
में भद्रा को अशुभ योग माना गया है, जिसमें सभी शुभ कार्यों को संपादित करना
पूर्णतया वर्जित है। भद्रा पंचांग के पांच अंगों में से एक अंग-श्करणश् पर आधारित
है यह एक अशुभ योग है। भद्रा (विष्टि करण) में अग्नि लगाना, किसी को दण्ड देना
इत्यादि समस्त दुष्ट कर्म तो किये जा सकते हैं किंतु किसी भी मांगलिक कार्य के लिए
भद्रा सर्वथा त्याज्य है। भद्रा के समय यदि चंद्र 4, 5, 11, 12 राशियों
में रहता है तो भद्रा मृत्यु लोक में मानी जाती है। यदि चंद्र 1, 2, 3, 8 राशियों
में हो तो भद्रा स्वर्ग लोक में और 6, 7, 9, 10 राशि में हो तो भद्रा पाताल लोक में
मानी जाती है। यदि भद्रा मृत्यु लोक में हो अर्थात् भद्रा के समय चंद्र यदि कर्क, सिंह, कुंभ तथा मीन
राशियों में गोचर करे तो यह काल विशेष अशुभ माना जाता है। एक पौराणिक कथा के
अनुसार श्भद्राश् भगवान सूर्य नारायण की कन्या है। यह भगवान सूर्य की पत्नी छाया
से उत्पन्न है तथा शनि देव की सगी बहन है। वह काले वर्ण, लंबे केश तथा
बड़े-बड़े दांतों वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में
विघ्न, बाधा
पहुंचाने लगी और उत्सवों तथा मंगल-यात्रा आदि में उपद्रव करने लगी तथा संपूर्ण
जगत् को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके उच्छं्रखल स्वभाव को देख सूर्य देव को उसके विवाह
के बारे में चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस स्वेच्छा चारिणी, दुष्टा, कुरुपा कन्या का
विवाह किसके साथ किया जाय। सूर्य देव ने जिस-जिस देवता, असुर, किन्नर आदि से
भद्रा के विवाह का प्रस्ताव रखा, सभी ने उनके प्रस्ताव को मानने से इनकार कर
दिया। यहां तक कि भद्रा ने सूर्य देव द्वारा बनवाये गये अपने विवाह मण्डप, तोरण आदि सब को
उखाड़कर फेंक दिया तथा सभी लोगों को और भी अधिक कष्ट देने लगी। उसी समय प्रजा के
दुःख को देखकर ब्रह्मा जी सूर्य देव के पास आये। सूर्य नारायण से अपनी कन्या को
सन्मार्ग पर लाने के लिए ब्रह्मा जी से उचित परामर्श देने को कहा। तब ब्रह्मा जी
ने विष्टि को बुलाकर कहा- श्भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो और
जो व्यक्ति यात्रा,
गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य तुम्हारे समय में करे, उन्हीं में तुम
विघ्न करो, जो
तुम्हारा आदर न करे,
उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना।श् इस प्रकार विष्टि को उपदेश
देकर ब्रह्मा जी अपने धाम को चले गये। इधर विष्टि भी देवता, दैत्य तथा मनुष्य
सब प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई। वह
अति दुष्ट प्रकृति की है इसलिए मांगलिक कार्यों में उसका अवश्य ही त्याग करना
चाहिए। भद्रा मुख और पूंछ- भद्रा पांच घड़ी मुख में, दो घड़ी (भद्रावास)
कण्ठ में, ग्यारह घड़ी
हृदय में, चार घड़ी
पुच्छ में स्थित रहती है। जब भद्रा मुख में रहती है तो कार्य का नाश होता है, कण्ठ में धन का नाश, हृदय में प्राण का
नाश, नाभि में
कलह, कटि में अर्थनाश
किंतु पुच्छ में निश्चित रूप से विजय एवं कार्य सिद्धि होती है। विष्टि करण को चार
भागों में विभाजित करके भद्रा मुख और पूंछ इस प्रकार ज्ञात किया जा सकता है- शुक्ल
पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी, एकादशी एवं
पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की- चतुर्दशी, दशमी, एकादशी एवं सप्तमी तिथियों को क्रमशः विष्टि
करण के प्रथम भाग की पांच घटियां (2 घंटे तक), द्वितीय भाग की 5 घटी, तृतीय भाग की प्रथम
पांच घटी तथा विष्टि करण के चतुर्थ भाग की प्रथम पांच घटियों तक भद्रा का वास मुख
में रहता है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी एकादशी एवं
पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी, दशमी, सप्तमी एवं एकादशी को क्रमशः विष्टि करण के
चतुर्थ भाग की अंतिम तीन घड़ियों में, विष्टि करण के प्रथम भाग की अंतिम तीन
घड़ियों में, विष्टि करण
के द्वितीय भाग की अंतिम तीन घड़ियों में तथा विष्टि करण के तृतीय भाग की अंतिम तीन
घटियों में अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट तक भद्रा का वास पुच्छ में रहता है।
भद्रा के बारह नाम हैं जो इस प्रकार हैं- धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना
कालरात्रि महारुद्रा विष्टि कुलपुत्रिका भैरवी महाकाली असुर क्षय करी। जो व्यक्ति
इन बारह नामों का प्रातः स्मरण करता है उसे किसी भी व्याधि का भय नहीं होता और
उसके सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। उसके कार्यों में कोई विघ्न नहीं होता। युद्ध
तथा राजकुल में वह विजय प्राप्त करता है, जो विधि पूर्वक विष्टि का पूजन करता है, निःसंदेह उसके सभी
कार्य सिद्ध हो जाते हैं। भद्रा के व्रत की विधि रू जिस दिन भद्रा हो, उस दिन उपवास करना
चाहिए। यदि रात्रि के समय भद्रा हो तो दो दिन तक उपवास करना चाहिए। (एक भुक्त)
व्रत करें तो अधिक उपयुक्त होगा। स्त्री अथवा पुरुष व्रत करें तो अधिक उपयुक्त
होगा। स्त्री अथवा पुरुष व्रत के दिन सर्वाेषधि युक्त जल से स्नान करें अथवा नदी
पर जाकर विधि पूर्वक स्नान करें। देवता तथा पितरों का तर्पण एवं पूजन कर कुशा की
भद्रा की मूर्ति बनायें और गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उसकी पूजा करें। भद्रा के
बारह नामों से 108
बार हवन करने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भी तिल
मिश्रित भोजन ग्रहण करें। फिर पूजन के अंत में इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए।
श्श्छाया सूर्यसुते देवि विष्टिरिष्टार्थ दायिनी। पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे
भद्रप्रदा भवघ् (उत्तर प. 117/39) इस प्रकार सत्रह भद्रा-व्रत कर अंत में
उद्यापन करें। लोहे की पीठ पर भद्रा की मूर्ति स्थापित कर, काला वस्त्र अर्पित
कर गन्ध, पुष्प आदि
से पूजन कर प्रार्थना करें। लोहा, बैल, तिल, बछड़ा सहित काली गाय, काला कंबल और
यथाशक्ति दक्षिणा के साथ वह मूर्ति ब्राह्मण को दान कर दें अथवा विसर्जन कर दें।
इस प्रकार जो भी व्यक्ति भद्रा व्रत एवं तदंतर विधि पूर्वक व्रतोद्यापन करता है
उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं पड़ता तथा उसे प्रेत, ग्रह, भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, यक्ष, गंधर्व, राक्षस आदि किसी
प्रकार का कष्ट नहीं देते। उसका अपने प्रिय से वियोग नहीं होता और अंत में उसे
सूर्य लोक की प्राप्ति होती है। (साई फीचर्स)
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