एफडीआई बनाम
राजनैतिक दल
(राम गोपाल सोनी)
बड़ी अजीब सी बात है
आर्थिक मसलों में किसकी बात मायने रखती है अनुभवी अर्थशास्त्रियों की या सिर्फ राजनीति
के लिये राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों की ?एफ.डी.आई. के विषय को ही लेकर पूरी विपक्षी
राजनैतिक लावी आर्थिक विशेषज्ञों की तरह इसे देश की व्यापारिक व्यवस्था पर
कुठाराघात बता रही है । बात कुछ सही है पर सही शब्दों में इसे व्यापारिक व्यवस्था
पर नहीं ब्लकि व्यापारियों पर वो भी एक विशिष्ट पंथ के व्यापारियों, जिन्हें बिचौलिया
कहा जाता है,पर
कुठाराघात कहा जा सकता है पर इससे आम उपभोक्ता को फायदा भी तो हो रहा है ।
और यही से
राजनेताओं और अर्थशास्त्रियों में एफ.डी.आई. को लेकर मतभेद पैदा हो गया है
।राजनेताओं का कहना है कि यह व्यापारियों और विशेषकर फुटकर व्यापारियों को तबाह कर
देगा और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि न सिर्फ इससे देश की अर्थव्यवस्था सुधरेगी
ब्ल्कि आम उपभोक्ता को भी फायदा होगा । वास्तविकता क्या है इसे समझने हेतु सबसे
पहले भारत में बीते कुछ दशक से व्यापार जगत में जो कुछ हो रहा है इस पर गौर करना
होगा । व्यापार जगत से निकल कर स्वदेशी
अपनाओ का नारा बहुत समय से भारतीय बाजार में अपना असर बनाता आया है । बहुत अच्छा
लगता है इसे सुनने में पर जितना सुहाना ये नारा है उतने अच्छे लोग इस नारे के पीछे
नहीं हैं । भारतीय उत्पादक से लेकर उन उत्पादों को बेचने वालों व्यापारियों तक पर
ये बात लागू होती है ।
स्वतंत्रता के बाद
जैसे जैसे भारतीय अर्थ व्यवस्था ने गति पकड़ी उसमें सुधार आता गया इससे लोगों की
आर्थिक अवस्था भी सुधरती गई । विज्ञान और निजी आर्थिक समर्थता ने लोगों की जरूरतों
में भी इजाफा किया । बढ़ते सालों में वर्ग विशेष की स्टेटस वाली वस्तुये, उनके खान पान और
रहन सहन ने अब तक हो चुके आर्थिक रूप समर्थ आम आदमी के घरों में भी घुसपैठ की और
एक समय एैसा भी आया जब कभी विलासिता की
वस्तुयें समझी जाने वाली ये वस्तुयें आम आदमी तक की महती जरूरतों में बदल गई ।
परिणाम स्वरूप इकानामी सेक्टर के इस बढ़ते ग्राफ को देखकर व्यापारियों की आंखे
चुधिया गई अब तक लोगों की जरूरतो को पूरा करने वाला व्यापारी इस अवस्था को अपने
खुद के लिये अधिक लाभ अर्जित करने वाले मैनेजमेंट रूपी वंशानुगत अभिलाषा को दबा नहीं
पाया और व्यापार के मूलमंत्र साख (क्वालिटी कंट्रोल) तक को ताख पर रख कर निम्न
स्तरीय समान को अच्छे से अच्छे मूल्य पर बाजार में उतारने में लग गया । नतीजा , आज बाजार के हालात
इतने बिगड़े हुये हैं कि ग्राहक अच्छे से अच्छा मूल्य देकर भी निम्न स्तरीय सामान खरीदनेे को मजबूर है । अब
इसे मजबूरी में होना कहें या देश प्रेम,उत्पाद की क्वालिटी और उस के लिये दिये गये
मूल्य की तुलनात्मकता में आम लोग व्यापारियों द्वारा ठगे ही जा रहे हैं और यह एक
कटु भारतीय सत्य है ।
वर्तमान परिदृश्य
में एफ.डी.आई. के फैसले ने भारतीय व्यापारियों में हड़कंप मचा दी । इससे चार करोड़
व्यापारियों का नुकसान होगा ऐसा आंकड़ा विरोध कर रही राजनैतिक पार्टियों तथा
व्यापारिक संगठन द्वारा जनता के सामने बताया जा रहा है । बड़ी अजीब लगती है यह
हड़बडाहट, यदि
व्यापारी अपने उत्पादन और कीमत के सामन्जस्य पर खरे हैं तो स्पर्धा से घबरा क्यों
रहे हैं ? क्यों ये
मानकर चला जा रहा है कि विदेशी सामग्रियों के आते ही उनके उत्पाद पिट जायेंगे ।
क्या भारतीय उत्पाद वास्तव में इतने खराब हैं ?और सबसे अजीब तो
अपने पक्ष में दिये गये वो बयान जिनसे इस प्रावधान से सबसे ज्यादा फायदा उठाने
वाले उन आम जनों तक को भ्रमित कर के रख दिया है कि इससे फुटकर व्यापारी बेरोजगार
हो जायेंगे ? सोचिये ऐसा
कैसे हो सकता है ?
हां दस लाख से उपर की आवादी के उन लगभग 60 शहरों में
एफ.डी.आई. से भारतीय उत्पादों का सीधा मुकाबला होगा और यदि कोई भी राजनैतिक पार्टी
अपने आप को जनता की हितचिंतक कहती है तो उसे इस स्पर्धा को होने भी देना चाहिये
क्योकि अंत में इससे आम उपभोक्ताओं को ही फायदा होना है व्यापारियों को इसकी चिंता
करनी चाहिये की कैसे वो इस स्पर्धा में बने रहें । रहा प्रश्न दस लाख से कम आवादी
बाले उन कस्बाई क्षेत्रों में एफ.डी.आई. की पहुंच का तो यह इन कस्बों तक
अप्रत्यक्ष पहुंच तो बना सकती है पर इससे फुटकर व्यापारी को क्या फर्क पड़ने बाला
है ,फुटकर
व्यापारी को तो सिर्फ अपना सामान बेचकर अपने हिस्से का लाभ लेना है चाहे वो देशी
बेच रहा हो या विदेशी ज्यादा से ज्यादा फुटकर व्यापारी का काउन्टर भर बड़ा हो
जायेगा याने उन्हें दस देशी चीजों के बजाय अब बीस देशी विदेशी चीजें रखना पड़ेगा
इससे अधिक और कुछ नहीं । नुकसान तो असल में उन अदृश्य व्यापारियों का होना है जो
उपभोक्ता की नजर में कही होते ही नहीं
जिन्हें हम आम बोल चाल की भाषा में बिचोलिये कहते हैं । भारतीय व्यापार में
इन्हें ही असल मूल्य वृद्धि का कारक कहा जा सकता है । हां इन सी.एण्ड एफ. का
नुकसान होना निश्चित है पर मैं समझता हूं कुछ विशिष्ट राजनैतिक पार्टियों को छोड़कर
जनता शायद ही इन हिड़न मीडियेटरों का उतना हित चिंतन करती हो । पर उनकी संख्या भी
चार करोड़ को कहीं भी नहीं छूती ।
यह तो निश्चित है
कि कुछ समय बाद भारतीय कार्पाेरेटर अपने प्रोडक्टों को इस स्पर्धा लायक बना लेंगे
। देशी हो या विदेशी व्यापार तो एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है और जब भी इसमें स्पर्धा
होती है, इससे
आमजनों को ही फायदा होता है । भारतीय इतिहास में पुराने समय से ये पत्ते हमेशा
व्यापारियों के हाथ में रहे हैं इतिहास इसका गवाह है, इन्होने आकाल जैसे
समय में भी यहां अपना भविष्य सुनहरा बनाया है पर अब एफ.डी.आई. की वजह से वो पत्ते
अब जनता के हाथो तक पहुंच सकतेे हैं, ग्राहक मजबूर और समय का मारा नहीं बल्कि
व्यापारी गरजहारा होगा । रहा प्रश्न जो रह रह कर कहीं कहीं सर उठाता है कि इससे
भारतीय पूंजी विदेश जायेगी ? हां यह होगा पर यदि हम विदेश से पूंजी लाने
की और इससे खुश होने की प्रवृति रखते हैं तो कुछ पूंजी विदेश जाने पर हमें रोना
क्यांे आ रहा है।
इन सब खुलासों से
एक सवाल यह उठ खड़ा हुआ हैं कि देश के इन कर्णधारों को कथित चार करोड़ व्यापारियों
का हित देखना चाहिये या देश के 120 करोड़ आम उपभोक्ताओं का? इस सवाल का जवाब तो
वो ही दे सकते हैं जिन्होने यह सवाल पैदा किया हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें