नपुंसक नेतृत्व और
दिशाहीन भारत
(लिमटी खरे)
‘‘गठबंधन सरकार चलाने में अनेक मजबूरियां होती
हैं।‘‘ यह बात ना
केवल प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने कहीं वरन् कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी
इसे दुहरा चुके हैं। गठबंधन सरकार चलाने का मतलब होता है साथी दलों की दादागिरी को
सहना। दादागिरी को सहना मतलब गलत बातों को ना चाहकर भी मानना। साीधे शब्दों में
कहा जाए तो नपुंसक हो जाना। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार नपुंसक और नामर्द हो चुकी
है। इसका कारण यह है कि देश को पिछले आठ सालों से रीढ विहीन नेता चला रहा है।
डॉ.मनमोहन सिंह देश के संभवतः पहले एसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने आज तक कोई
चुनाव ही नहीं जीता है। गठबंधन धर्म को राष्ट्रधर्म से बड़ा जतलाकर कांग्रेस और
मनमोहन सिंह सत्ता की मलाई तो चख रहे हैं पर उन्होंने अपनी और कांग्रेस की टीआरपी जमीन
पर लाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। आज सियासत में नैतिकता नहीं बची है। ममता
बनर्जी जब तब कांग्रेस की कालर पकड़कर कांग्रेस को धमकाती नजर आती हैं, अपना स्वार्थ पूरा
होने पर वे कांग्रेस पर ममता भी उड़ेलने से नहीं चूकती हैं।
इक्कसवीं सदी के
पहले दशक में जो कुछ हुआ वह भारत के इतिहास में काला दशक के रूप में दर्ज होगा। इस
दशक में देश लुटता रहा, विदेशी मूल की कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी अपने
सामने देश को लूटने वालों की पीठ थपथाती नजर आईं और देश के सर्वशक्तिमान वजीरे आजम
डॉ.मनमोहन सिंह नामर्द ही साबित हुए। मनमोहन सिंह अपने आप को बेबस और मजबूर ही
साबित करते रहे। देश में लाखों करोड़ों रूपयों के घोटाले हुए, सरकार इन
घोटालेबाजों को सालों साल तक सरकारी दामाद बनाकर रखे रही।
यह सब देखने सुनने
के बाद भी मनमोहन सिंह को शर्म नहीं आई। मनमोहन को शर्म भला क्यों आने लगी? वे कौन सा जनता को
सीधे सीधे फेस कर चुने गए हैं। वे तो आज तक कोई चुनाव ही नहीं जीते हैं। मनमोहन
सिंह परजीवी की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। डॉ.सिंह राज्य सभा से चुने गए हैं, असम से। असम से भी
उन्हें कोई लेना देना नहीं है, जहां की जनता ने परोक्ष तौर पर उन्हें चुना।
असम के लोगों पर विपदा का कहर टूटा, मनमोहन सिंह मौन मोहन सिंह बने रहे। राज
ठाकरे ने मुंबई में उत्तर भारतियों के खिलाफ दहाड़ लगाई असमवासी घबराए, इधर उधर भागे पर
मौनमोहन सिंह चुपचाप मुस्कुराते रहे।
इटली मूल की सोनिया
गांधी भारत की बहू बनीं हैं। उनके अंदर कितना देशप्रेम है भारत के प्रति यह बात तो
वे ही बेहतर जानती होंगीं किन्तु जिस तरह से लाखों करोड़ों अरबों खरबों रूपयों की
होली खेली जाती रही और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांध्ीा और युवराज
राहुल गांधी खामोश रहे, उससे सोनिया और राहुल के भारत देश की जनता के प्रति प्रेम में
कुछ संशय अवश्य ही होता है।
सवाल यह है कि कारू
का खजाना समझकर कांग्रेस के नेतृत्व में जनसेवक जिसे लूट रहे हैं वह है किसका? जाहिर है देश के
गरीब गुरबों से एकत्र किए गए राजस्व का ही हिस्सा है वह सब। फिर हमारी ही जायजाद
को लूटने का हक कांग्रेस या केंद्र सरकार किसी को कैसे दे सकती है? और अगर एसा हो रहा
है तब विपक्ष में बैठे राजनैतिक दल क्या इस लूट को देखते हुए छद्म विरोध की
औपचारिकता पूरी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मात्र कर रही हैं? क्या उनकी नैतिक
जिम्मेवारी इस लूट को रोकने की नहीं बनतीं।
हाल ही में ममता
बनर्जी ने एक कड़ा फैसला लेकर केंद्र सरकार से समर्थन वापसी का शिगूफा छोड़ा है, जिससे कांग्रेस
अंदर तक हिल गई दिख रही है। कांग्रेस के दरवाजे के इर्द गिर्द दूसरे बड़े सौदागर
आकर खड़े हो गए हैं। गठबंधन से सरकार चलाना कठिन है या आसान यह बात सरकार के सोचने
का विषय है, किन्तु इस
सौदेबाजी में आम जनता को लुटने पिटने से बचाने की जवाबदेही भी सरकार की ही बनती
है।
देखा जाए तो ममता
बनर्जी ने समर्थन वापसी की घोषणा से यूपीए दो को सरकार बनाने के लिए जादुई आंकड़े 272 से नीचे लाकर खड़ा
कर दिया है। सरकार को यह उम्मीद है कि 22 सांसदों वाली समाजवादी और 21 वाली बहुजन समाज
पार्टी का समर्थन सरकार को मिलता रहेगा। आने वाले दिनों में अगर एसा हुआ तो
निश्चित तौर पर मायावती और मुलायम की ओर सीबीआई रूख नहीं करने वाली है।
अभी सरकार में
शामिल कांग्रेस- 207,
टीएमसी-19, डीएमके- 18, एनसीपी-9, नैशनल कॉन्फ्रेंस- 3, आरएलडी- 5, मुस्लिम लीग केरल
स्टेट कमिटी-2, एआईएमआईएम-1, केरल कांग्रेस- 1, सिक्किम
डेमोक्रेटिक फ्रंट-1,
वीसीके-1, एआईयूडीएफ-1 मिलाकर कुल 268 सांसदों का संख्या
बल है। इसके अलवा बाहर से समर्थन वाले समाजवादी 22, बसपा 21, आरजेडी 4 इस तरह कुल संख्या
315 हो जाती
है।
इसमें से तमिल
मीनला कांग्रेस ने अगर अपने आप को सरकार से अलग किया तो फिर संप्रग के पास 296 ही सांसद बच जाते
हैं। उधर डीएमके ने सरकार की कालर पकड़ना आरंभ कर दिया है। अगर डीएमके 18 सांसदों के साथ
अलग हुई तो सरकार के पास 278 ही बचेंगें। उस वक्त संप्रग के टूटकर बिखरने के डर से
कांग्रेस कुछ भी कर सकती है।
सरकार को अगर अपने
आप को बचाना है तो मुलायम सिंह यादव की चिरौरी करना सबसे जरूरी हो गया है। मुलायम
सिंह यादव को साधे रखना कांग्रेस के लिए दुष्कर इसलिए है क्योंकि मुलायम की मांगों
का अंत नहीं हैं। वहीं दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो मायावती भी 10 अक्टूबर की अपनी
रैली में भविष्य की रणनीति का खुलासा करने का एलान कर चुकी हैं।
त्रणमूल के अलग
होने के बाद अब रेल मंत्रालय पर सभी की राल टपक रही है। वहीं पूर्व रेल मंत्री
लालू यादव ने भी इस मंत्रालय के लिए जोड़तोड़ आरंभ कर दी है। अगर मामला नहीं सुलटा
तो आने वाले दिनों में कैबनेट में व्यापक फेरबदल तय माना जा रहा है। इस फेरबदल में
राहुल की भूमिका और सहयोगी दलों के बंदरबांट की चिंता सबसे अधिक दुखदायी साबित
होने वाली है।
सरकार के सामने
सबसे बड़ी चुनौती शीतकालीन सत्र की है। शीतकालीन सत्र में सरकार को इकनामिक रिफॉर्म, सोशल रिफॉर्म, मानव संसाधन विकास
मंत्रालय के अनेक विधेयक पारित करवाने हैं। अगर गतिरोध इसी तरह रहा तो इन सारे
विधेयकों के पारित होने में संशय बरकरार ही रहेगा।
ममता बनर्जी के
अड़ियल रूख से अब वाम दल भी बदले बदले नजर आ सकते हैं। केंद्र सरकार को समर्थन देकर
वाम दल एक बार फिर पश्चिम बंगाल में केंद्र के सहयोग से अपनी जमीन पर उगे त्रणमूल
के खरपतवार को साफ करने का प्रयास करेगी। वाम दल भले ही उपर से केंद्र के खिलाफ
होने का दावा कर रहा हो पर सोनिया गांधी और वाम दलों के नेताओं की जुगलबंदी केू
उजागर होने के बाद अब लगने लगा है कि वाम दल भी केंद्र के साथ ही कंधे से कंधा
मिलाकर चल सकता है।
सियासी फिजां में
यह बात भी उभरकर सामने आ रही है कि ममता बनर्जी को सरकार के इस कदम पर इतना आक्रोश
है तो फिर वे जब देश को लूटा जा रहा है तब खामोश क्यों बैठीं हैं? विपक्ष में बैठा
राजग भी इन सारे घपले घोटालों के बाद देश व्यापी अनिश्चितकालीन अनशन या लोगों को
जागरूक करने क्यों नहीं निकल रहा है, जाहिर है कि वह भी देश को लूटे जाने में मौन
रहकर अपनी सहभागिता ही दर्शा रहा है। (साई फीचर्स)
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