सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

अन्ना हजारे और मुन्ना बेचारे


अन्ना हजारे और मुन्ना बेचारे

(संजय तिवारी)

नई दिल्ली (साई)। बिना मुन्ना के अन्ना से मिलना न जाने क्यों अधूरा सा लगता है। दिल्ली में चली वॉलन्टियर मीट के बाद अन्ना हजारे हिन्दी भवन के सभागार में उन्हीं वॉलन्टियर्स के सामने प्रबोधनकार बने बैठे थे। वे ऐसा कुछ नहीं बोल रहे थे जो उन्होंने पिछले दो साल में न बोला हो लेकिन उन्हें सुनने आये वे लोग उनको सुन रहे थे, जो अब आंदोलनकारी से आगे बढ़कर कार्यकर्ता हो चले हैं। बिना अनशन या उपवाश के भी अन्ना की आवाज धीमी है। अन्ना के संबोधन के बाद जब सवाल जवाब शुरू हुआ तो ऐसी अफरा तफरी मची कि अन्ना ने वहां से उठकर जाना ही बेहतर समझा। अन्ना उठे और चले गये।
पिछले करीब एक महीने से अन्ना और अरविन्द के बीच चल रही तनातनी के बीच अन्ना हजारे की इस तरह की यह पहली कोशिश है। जड़ जमाने की कोशिश। अगस्त में जंतर मंतर पर आखिरी अनशन टूटने के बाद से ही अरविन्द केजरीवाल दिल्ली और दिल्ली के बाहर लगातार वालन्टियर मीट कर रहे हैं। अभी आखिरी वालन्टियर मीट 29 सितंबर को दिल्ली में हुई जिसमें राजनीतिक दल बनाने पर विचार विमर्श किया गया। कम से कम दिल्ली में जितनी वॉलन्टियर मीट हुई है उसमें नौजवानों की मौजूदगी दिखती है। इन वालन्टियर मीट से अन्ना के आंदोलन से उपजे वे समर्थक नदारद थे जो टीम अन्ना में अरविन्द विरोधी हैं। हो सकता है इन वालन्टियर मीट की सफलता की शिकायत अन्ना हजारे को की गई हो और अन्ना ने दिल्ली आकर अरविन्द से अपने अलग होने की घोषणा कर दी। अगर इसमें सच्चाई नहीं होती तो भला खुद अन्ना हजारे रालेगढ़ से चलकर दिल्ली वालन्टियर मीट करने क्यों आते?
निश्चित रूप से वे अरविन्द की बढ़ती ताकत को हर संभव तरीके से रोकना चाहते हैं। एक तरफ वे सार्वजनिक रूप से अरविन्द केजरीवाल से अपनी दूरी बता रहे हैं और अपना नाम तथा फोटो तक इस्लेमाल करने से रोक रहे हैं तो दूसरी ओर जन धन को संभालने के लिए उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं जिसका प्रयोग अरविन्द केजरीवाल पहले ही कर चुके हैं। रविवार को दिल्ली में जो अन्ना ने दिनभर की जो वालन्टियर मीट ली उसकी पूरी उधेड़बुन में कुछ निकलकर सामने आया नहीं। अन्ना हजारे बोलने के लिए कुछ भी बोलें लेकिन अनशन का दौर खत्म हो जाने के साथ ही उनका रोडमैप भी समाप्त हो गया है। मसलन रविवार को जब वे अपने समर्थकों के सामने बोल रहे थे तो उन्होंने साफ कहा कि श्श्2014 हमारा आखिरी लक्ष्य नहीं है। हमें बहुत लंबे जाना है।श्श् यह श्लंबेश् कहां तक जाता है यह न तो अन्ना हजारे को पता है और न ही उनके उन समर्थकों को जो टीम अरविन्द के इतर अन्ना आंदोलन की धारा में बह रहे थे।
अन्ना दिल्ली आये थे अरविन्द केजरीवाल के उस आंदोलन का समर्थन करने जो अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू करना चाहते थे। उन्होंने बिना किसी बैनर के भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान की शुरूआत की थी और इसमें अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव को मुखौटे के रूप में इस्तेमाल किया था। लेकिन दिल्ली आने के बाद अरविन्द का आंदोलन अन्ना का आंदोलन बन गया। अरविन्द के मुकाबले अन्ना हजारे देश को ज्यादा अपील करते थे। उन्होंने अपील किया भी। और देखते ही देखते देश में अन्ना आंदोलन खड़ा हो गया। यह आंदोलन जैसे जैसे बढ़ता गया अपने आप एक एक टीम अन्ना पैदा हो गई। इस टीम अन्ना में वही लोग थे जिन्हें अरविन्द केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष शुरू करने के लिए अपने साथ लिया था। अन्ना आंदोलन के बाद भले ही एनजीओ बिरादरी में अरविन्द केजरीवाल विलेन बन गये हों लेकिन उसके पहले एनजीओ बिरादरी के बीच अरविन्द केजरीवाल प्यारे गुड़्डे के तौर पर पहचाने जाते थे। अपनी इसी छवि का इस्तेमाल करके अरविन्द केजरीवाल ने कई दर्जन संस्थाओं और एनजीओ बिरादरी के बड़े नामों को भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में शामिल कर लिया था। एनजीओ बिरादरी के इन्हीं नामों का समुच्चय आगे टीम अन्ना बन गई।
लेकिन जैसे ही भ्रष्टाचार के खिलाफ अरविन्द की मुहिम अन्ना का आंदोलन बनी और मीडिया में पूछताछ बढ़ी तो प्रचार के भूखे एनजीओ बिरादरी के इन भेड़ियों ने अपनी अपनी खाल उतार दी। अब वे अपने असली रूप में सामने आ गये। सौ पचास की संख्या को ष्देशव्यापी आंदोलनष् बता देनेवाली इस एनजीओ बिरादरी के लिए अन्ना का आंदोलन बड़ी सफलता थी। इस आंदोलन से जो जन धन हासिल हुआ था उस पर अरविन्द केजरीवाल भी अपना दावा कर रहे थे और एनजीओ बिरादरी भी। हालांकि दोनों के दावों की पृष्ठभूमि अलग अलग थी। एनजीओ बिरादरी की सोच यह थी कि जनता उसके साथ जाएगी जिसके साथ अन्ना हजारे होंगे लेकिन अरविन्द केजरीवाल का दुस्साहस इसके विपरीत था। अरविन्द केजरीवाल सोचते हैं कि अन्ना उसके साथ जाएंगे जिसके साथ जनता होगी। हो सकता है, अरविन्द केजरीवाल सही सोचते हों क्योंकि एनजीओ बिरादरी तब अन्ना के करीब आई जब अन्ना ब्राण्ड हजारे बन चुके थे जबकि अरविन्द केजरीवाल अन्ना हजारे के पास तब गये जब वे रालेगढ़ में महाराष्ट्र मार्का आंदोलनकारी थे।
लेकिन आंदोलन का यह महाराष्ट्र मार्क जब नेशनल ब्राण्ड बना तो दावों की झड़ी लग गई। एनजीओ बिरादरी ने ही अन्ना हजारे पर दावा नहीं किया। राजनीतिक दलों में दूसरे सबसे बड़े दल ने भी किसी न किसी तरह अन्ना की मुहिम को कांग्रेस विरोधी मुहिम साबित करने की कोशिश भी की। अरविन्द केजरीवाल के किनारे होने के बाद अन्ना हजारे के पास जो लोग बच गये हैं उसमें दो ही तरह के लोग ज्यादा हैं। एक वे जो एनजीओ बिरादरी से नाता रखते हैं और दूसरे वे जो राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाना चाहते हैं। इन दो तरह के लोगों में एनजीओ बिरादरी हावी है। एनजीओ बिरादरी के वे लोग जो अरविन्द केजरीवाल के प्रभाव में दब गये थे, उभरकर सामने आ गये हैं और एक बार फिर अन्ना को आगे ले जाना चाहते हैं। यही वह एनजीओ बिरादरी है जिसने अब दिल्ली में अन्ना का सारथी बनने का दावा किया है। अन्ना और अरविन्द केजरीवाल के बीच शुरू हुई सिविल वार में वही सिविल सोयासटी है जो प्रभाव के स्तर पर भले ही नगण्य हो लेकिन नेतृत्व के स्तर पर एनजीओ बिरादरी तो बन ही गई है।
इसी एनजीओ बिरादरी ने टेलीवीजन मीडिया का साथ मिल जाने पर जो तमाशा खड़ा किया वह तमाशा अब एक नौटंकी में तब्दील हो चुका है। कुछ नौजवान जो कभी अरविन्द की वालन्टियर मीट का हिस्सा बनते हैं तो कभी अन्ना की मीटिंग में पहुंच जाते हैं, वे आगे बढ़ने का पता पूछ रहे हैं। दोनों ही खेमों में पता बताने की जद्दोजहद चल रही है। अरविन्द का खेमा राजनीतिक विकल्प को रास्ता बता रहा है तो अन्ना की एनजीओ बिरादरी अभी भी अपने वैकल्पिक रास्तों पर ही चलने की सलाह दे रही है। ऐसा करते हुए अन्ना और अरविन्द दोनों ही अपनी अपनी फितरत का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। अन्ना और अरविन्द दोनों की फितरत यही रही है कि उन्होंने अपने अपने फायदे के लिए काम नाम और धाम का इस्तेमाल किया है और आगे बढ़ गये हैं। इसलिए दोनों ओर से सिविल सोसायटी के इस सिविल वॉर में आखिरकार विजेता कौन होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि बहुमत की जनता को कौन अपने साथ बांधकर रख पाता है। अन्ना हजारे रह जाएंगे या फिर मुन्ना बेचारे हो जाएंगे यह भी इस पर निर्भर करेगा कि सिविल सोसायटी की शातिर चालों में आखिरी बाजी किसके हाथ लगती है।
अन्ना हजारे के पास अपने नाम के ब्राण्ड का ब्रह्माण्ड है लेकिन अरविन्द केजरीवाल जैसा सक्रिय दूसरा आदमी नहीं है तो अरविन्द केजरीवाल के पास अब अन्ना जैसा दूसरा ब्राण्ड खड़ा कर लेने की कूब्बत नहीं है। इसलिए इतना तो तय है कि अन्ना और अरविन्द के बीच चल रही इस सिविल वार में अगर सुलह समझौता नहीं होता तो ज्यादा दिन नहीं लगेगा जब दोनों का सूरज डूब जाएगा। और साथ में उनकी उम्मीद का तारा भी टूट जाएगा जो कभी भागकर अरविन्द केजरीवाल की वालन्टियर मीट का हिस्सा बनता है तो कभी अन्ना हजारे से आगे की योजना को लेकर सवाल जवाब करता है।
(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)

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