जल व पिंडदान का
विशेष महत्त्व हें श्राद्ध पक्ष में
(पंडित दयानन्द शास्त्री)
नई दिल्ली (साई)।
भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता व
परिवार के मृतकों के नियमित श्राद्ध करने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है।
श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहा गया है व पितृकर्म से तात्पर्य पितृपूजा भी है।
अपने पूर्वजों के
प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव
से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी
है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (कुंवार) माह
की अमावस्या तक के यह सोलह दिन श्राद्धकर्म के होते हैं।
इस वर्ष श्राद्ध
पक्ष की शुरुआत 30 सितंबर,2012 (रविवार) से होकर उसका समापन 15 अक्तूबर,2012 (सोमवार) को
सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को होगा। महर्षि पाराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में
हविष्यादि विधि से जो कर्म यव (तिल) व दर्भ (कुशा) के साथ मंत्रोच्चार के साथ
श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह श्राद्ध होता है।
भारतीय संस्कृति व
सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता व परिवार के मृतकों
के नियमित श्राद्ध करने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है। श्राद्ध कर्म को
पितृकर्म भी कहा गया है व पितृकर्म से तात्पर्य पितृपूजा भी है।
आश्विन कृष्ण
प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर
व्याप्त रहता है। श्राद्घ की मूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पित्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की
तृप्ति के लिए श्रद्घापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्घ है। मृत्यु के बाद
दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद
वह पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो
तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम
से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेत का
अंश लेकर वह चंद्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है।
ठीक आश्विन कृष्ण
प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग
लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसलिए इसको
पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्घ करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता
धर्मशास्त्रों
अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यह आत्माएं मृत्यु
के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में
रहते हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।
अन्न से शरीर तृप्त
होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी
अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी
पितृलोक कहा जाता है। (साई फीचर्स)
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