राष्ट्रीय लूट की
बेमिसाल मिसाल
(पुण्य प्रसून बाजपेयी / विस्फोट डॉट काम)
नई दिल्ली (साई)।
विदर्भ के जिन खुदकुशी करते किसानों का रोना बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी यह कहते
हुये रो रहे हैं कि गोसीखुर्द परियोजना पूरी कराने के लिये वह जल संसाधन मंत्री
पवन बंसल को दस और चिट्ठी लिखने को तैयार हैं, असल में वही
गोसीखुर्द परियोजना बीते 24 बरस से सिर्फ लूट की योजना बनी हुई है। जबकि इस दौर में क्या
दिल्ली क्या महाराष्ट्र हर जगह सत्ता में बीजेपी भी आई लेकिन गोसीखुर्द का मतलब
करोड़ों डकारने का ही खेल रहा।
1995 से 1999 तक अगर महाराष्ट्र की सत्ता में शिवसेना के
साथ बीजेपी थी और गडकरी हैसियत वाले मंत्री थे तो केन्द्र में भी 1999 से 2004 के दौरान वाजपेयी
सरकार ने भी गोसीखुर्द को कागजों पर विदर्भ के विकास से जरुर जोड़ा। काफी पैसा
रिलीज भी किया लेकिन परियोजना पूरी हुई नहीं और राजनीति को साधने वाले ठेकेदार
गोसीखुर्द के पैसे से नेता जरुर बन गये। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेसी नेता भी
गोसीखुर्द परियोजना को पूरा करने से ज्यादा इंदिरा-राजीव की भावनाओं से ही खुद को
जोड़ कर तरे। जबकि गोसीखुर्द के कुल 70 राजनीतिक ठकेदारों में से नौ ठेकेदार
नागपुर-चन्द्रपुर में कांग्रेस की ही राजनीति करते हैं। और इन सबके बीच विदर्भ के
करीब 22 हजार
किसानों ने खुदकुशी कर ली और हर किसी ने राजनीति आह भरी।
असल में देश की
महत्वपूर्ण चौदह राष्ट्रीय योजनाओं में से एक गोसीखुर्द परियोजना अपने आप में
राष्ट्रीय लूट की मिसाल है। क्योंकि 1983 में इंदिरा गांधी के दौर में गोसीखुर्द
परियोजना का नोटिफिकेशन हुआ। लागत 372 करोड़ बतायी गई। और नोटिफिकेशन के पांच बरस
बाद जब 22 अप्रैल 1988 को राजीव गांधी ने
गोसीखुर्द परियोजना का भूमिपूजन किया तब भी परियोजना की लागत 372 करोड़ ही बतायी गई।
परियोजना को पांच बरस में पूरा करने का लक्ष्य भी रखा गया। और राजीव गांधी ने 200 करोड रुपये रिलीज
भी कर दिये। गोसीखुर्द का काम शुरु होता उससे पहले ही परियोजना की 22358 हेक्टेयर जमीन पर
बसे 200 गांव के 15 हजार परिवारों को
नोटिस दे दिया गया कि वह जमीन खाली कर दें। यानी एक तरफ मुआवजे और पुनर्वास का
आंदोलन तो दूसरी तरफ आंदोलन की आड़ में ठेकेदारों की लूट का खुला खेल गोसीखुर्द में
शुरु हुआ। 1994 में
गोसीखुर्द प्रकल्प संघर्ष समिति के अध्यक्ष विलास भोंगाडे ने उचित मुआवजा और
विस्थापितों के लिये खेती की जमीन की मांग की और संघर्ष तेज किया तो कांग्रेस की
कान में जूं रेंगी। और 1995 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव गोसीखुर्द जा
पहुंचे। मुआवजे और पुनर्वास से निपटने के लिये राज्य सरकार को कहा तो गोसीखुर्द
परियोजना को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का सपना बताते हुये तत्काल वाकी पैसा
रिलीज करने का भरोसा दिया। लेकिन तब नरसिंह राव को बताया गया कि गोसीखुर्द की लागत
372 करोड़ से
बढ़कर 3768 करोड़ हो
गई है। बावजूद इसके पीवी नरसिंह राव के दौर में 2341 करोड़ रिलीज किये
गये। जो भी पैसा आया वह कहां गया और गोसीखुर्द परियोजना की जमीन जस की तस क्यों
पड़ी है, इसकी
छानबीन वाजपेयी सरकार के दौर में हुई। जो रिपोर्ट बनायी गई उसमें ठेकेदारों का
रोना ही रोया गया कि जितनी परियोजना की लागत है, उसका आधा पैसा भी
नहीं आया है और ठेकेदारों का पैसा अटका हुआ है। 2001 में परियोजना की
लागत 8734 करोड़ हो
गई। केन्द्र सरकार यानी वाजपेयी सरकार ने भी माना कि विदर्भ के लिये योजना
महत्वपूर्ण है और किसानों की खुदकुशी के मद्देनजर गोसीखुर्द परियोजना से भंडारा, चन्द्रपुर और
नागपुर की ढाई लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी। और 1345 करोड़ तुरंत रिलीज
किये गये। बाकि किस्तों में देने की बात कही गई।
पैसा जाता रहा और
ठेकेदार उसे डकारते गये। दिल्ली में सत्ता बदली और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने
तो विदर्भ के मरते किसानों की याद उनको भी आई। 1 जुलाई 2006 को प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह विदर्भ की यात्रा पर गये तो किसानों की विधवाओं के साथ मुलाकात की और
गोसीखुर्द परियोजना की भी खबर ली। मनमोहन सिंह ने गोसीखुर्द को राजीव गाधी का सपना
बताया और बेहद भावुक होकर हर हाल में जल्द से जल्द पूरा कर विदर्भ के कायाकल्प की
बात कही। लेकिन तब उन्हे बताया गया कि गोसीखुर्द परियोजना की लागत 12 हजार करोड़ से
ज्यादा की हो गई है। बावजूद इसके उन्होने तत्काल केन्द्र का पैसा रिलीज करने की
बात कही और राष्ट्रीय परियोजना के मद्देनजर गोसीखुर्द को पूरा करना सरकार की
जिम्मेदारी बताया। इसके बाद साल दर साल पैसा रिलीज होने लगा। आखिरी बार पैसा 2010-11 में दो किस्तों
में भेजा गया। पहली किस्त 635.28 करोड़ की तो दूसरी किस्त 777.66 करोड़ की। लेकिन इस
पूरे दौर में गोसीखुर्द परियोजना को लेकर कई स्तर पर ठेकेदार लगातार जुड़ते गये।
चूंकि केन्द्र से लगातार पैसा आ रहा ता तो ठेकेदारों को कागजों पर काफी कुछ दिखाना
भी था। तो हालात यहां तक आ गये कि परियोजना का काम तो पूरा हुआ नहीं। उल्टे
परियोजना के दायरे में पानी टंकी बनाने से लेकर नाली बनाने और सड़क बनाने का काम भी
शुरु होता दिखाया गया। करीब दो सौ से ज्यादा छोटे बड़े ठेकेदार प्रभाव डालने वाले
नेताओं की चिट्ठी पाकर गोसीखुर्द परियोजना की लूट में शामिल हो गये। इन सबके बीच
गोसीखुर्द परियोजना के नाम पर जो भी काम हुआ तो वडनेरे कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में
ठेकेदारों की लूट का खुले तौर पर यह कहकर जिक्र किया किया काम का स्तर बेहद घटिया
है।
सेन्ट्रल वाटर
कमीशन ने भी प्रोजेक्ट में इस्तेमाल मेटेरियल को घटिया दर्जे का बताते हुये काम कर
रही कंपनियों पर रोक लगाने तक की बात कही। वहीं वडनेरे कमेटी ने भी ठेकेदारों के
दस्तावेजों के जरीये लगातार परियोजना की बढ़ती लागत पर भी अंगुली उठायी। यानी जांच
रिपोर्ट को लेकर सवाल यह भी उठा कि क्या ठेकेदारों के लाइसेंस रद्द कर दिये जाने
चाहिये और जिस बकाया की बात ठेकेदार लगातार कर रहे हैं, उल्टे उनसे पैसों
की वसूली की जानी चाहिये। लेकिन ठेकेदार से राजनेता बन चुके गोसीखुर्द परियोजना से
जुड़ी कंपनियों का कोई बाल बांका भी क्या करता। क्योंकि भंडारा और नागपुर जिले के 16 नेताओं की
कंपनियों को परियोजना के ठेके मिले हुये हैं। योजना से प्रभावित होने वाले तीन
जिलों के 45 पार्षदों
की ठेकेदारी भी इसी योजना के तहत जारी है। इसलिये मनमानी से ज्यादा सत्ता की ठसक
में परियोजना की लागत बढाने और पैसा ना मिलने की एवज में काम रोकने का सिलसिला ही चला
। और बीजेपी सांसद अजय संचेती की एसएमएस कस्ट्रक्शन कंपनी हो या बीजेपी के एमएलसी
मितेश बांगडिया की एम.जी बांगडिया व महेन्द्र कंस्ट्रक्शन कंपनी या फिर इसी तरह की
दो दर्जन कंपनी जो सीधे गोसीखुर्द परियोजना में डैम बनाने से जुड़ी हैं, उन्होंने ही और
पैसा रिलीज करने का दवाब बनाया। और ऐसे मोड़ पर बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने जब
पवन बंसल को पत्र लिखकर विदर्भ के लिये जरुरी गोसीखुर्द के बकाया पैसों के रिलीज
का सवाल उठाया तो विदर्भ में नीतिन गडकरी को लेकर पहला सवाल यही उठा कि चूंकि
भंडारा में नीतिन गडकरी ने शुगर फैक्ट्री लगायी है तो उन्हें अपनी फैक्ट्री के
लिये पानी चाहिये इसलिये अचानक गोसीखुर्द परियोजना की याद आई है। तो दूसरी तरफ
खुदकुशी करते किसानों के बीच काम करते किशोर तिवारी ने कहा जब जांच रिपोर्ट में
ठेकेदारों पर ही अंगुली उठी है तो बीजेपी अध्यक्ष को तो ठेकेदारों से पैसा वसूलने
और लाइसेंस रद्द करने की मांग करनी चाहिये थी। जिससे प्रोजेक्ट पूरा होता। उल्टे
ठेकेदारों को पैसा देने का सवाल उठा कर नीतिन गडकरी परियोजना पूरी ना करने वाले
ठेकेदारों को चढ़ावा चढ़ाकर बढ़ावा ही दे रहे हैं। क्योंकि 1988 में 382 करोड़ की गोसीखुर्द
परियोजना 2012 में 14000 करोड़ पार कर गई
है।
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