गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

दस दिकपाल


दस दिकपाल

(पंडित दयानन्द शास्त्री)

नई दिल्ली (साई)। इंद्र, अग्नि, यम, नऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश्व, अनंत और ब्रह्मा।
महर्षि पुलस्त्य के अनुसार जिस कर्मविशेष में दूध, घृत और मधु से युक्त अच्छी प्रकार से पके हुए पकवान श्रद्धापूर्वक पितृ के उद्देश्य से गौ, ब्राह्मण आदि को दिए जाते हैं वही श्राद्ध है। अतः जो लोग विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करते हैं वह सभी पापों से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। उनका संसार में चक्र छूट जाता है।
इसीलिए चाहिए कि पितृगणों की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। कहा है कि श्राद्ध करने वाले की आयु बढ़ती है पितृ उसे श्रेष्ठ संतान देते हैं, घर में धन-धान्य बढ़ने लगता है, शरीर में बल, पौरुष बढ़ने लगता है एवं संसार में यश और सुख की प्राप्ति होती है।
श्राद्ध कर्म में गया तीर्थ का स्मरण करते हुए श्घ् गयायै नमःश् तथा गदाधर स्मरण करते हुए श्घ् गदाधराय नमःश् कहकर सफेद पुष्प चढ़ाने चाहिए। साथ ही तीन बार श्घ् श्राद्धभूम्यै नमःश् कहकर भूमि पर जौ एवं पुष्प छोड़ने चाहिए। आधुनिकता के वेग में नई उम्र के कई लोगों को यह मालूम नहीं होता कि श्राद्ध किस तरह से किया जाता है और इससे जुड़े विधि-विधान क्या हैं?
श्राद्धकर्ता को स्नान करके पवित्र होकर धुले हुए दो वस्त्र धोती और उत्तरीय धारण करना चाहिए। गौमय से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर बैठकर श्राद्ध की सामग्रियों को रखकर सबसे पहले भोजन का निर्माण करना चाहिए। उसके बाद ईशान कोण में पिण्ड दान के लिए पाक सामग्री रख लें। साथ ही वहीं पर खीर का कटोरा भी स्थापित कर देना चाहिए। उसके बाद विप्र भोज के लिए रखे हुए भोजन में तुलसीदल डालकर भगवान का भोग लगाना चाहिए।
श्राद्ध कर्ता को गायत्री मंत्र पढ़ते हुए शिखाबंधन करने के बाद श्राद्ध के लिए रखा हुआ जल छिड़कते हुए सभी वस्तुओं को पवित्र कर लेना चाहिए। उसके बाद तीन बार आचमनी करें हाथ धोकर विश्वदेवों के लिए दो आसन दें। उन दोनों आसनों के सामने भोजन पात्र के रूप में पलाश अथवा तोरी का एक-एक पत्ता रख दें भोजन के उत्तर दिशा में जल भरा हुआ दोना रखकर पूर्वजों के निमित्त वेद मंत्रों के साथ श्राद्ध एवं तर्पण करना चाहिए।
धर्मशास्त्रोक्त सभी ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्याेदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक मधु, डेढ़ प्रहर तक दुग्ध, साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप से पितृ को प्राप्त होता है। श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर पितृ तीर्थ यानी अंगूठे की ओर से धरती में छोड़ने से पितर को तृप्ति मिलती है।
पितरों की पद वृद्घि तथा तृप्ति के लिए स्वयं श्राद्घ करना चाहिए। पितरों के लिए श्रद्घा से क्रमानुसार वैदिक पद्घति से शांत चित्त होकर किया कर्म श्राद्घ कहलाता है। शास्त्र में सुस्पष्ट है कि नाम व गौत्र के सहारे स्वयं के द्वारा किया श्राद्घ पितरों को विभिन्न योनियों में प्राप्त होकर उन्हें तृप्त करता है।
पं. दयानन्द शास्त्री (मोब.-09024390067 ) के अनुसार यम स्मृति तथा निर्णय सिंधु के आधार पर जब सूर्य कन्या राशि में अवस्थित हो, तब पितृ अपने पुत्र-पौत्र की ओर देखते हैं। अपनी तृप्ति व पद वृद्घि के हेतु जल व पिंडदान की आशा करते हैं। सूर्यसंहिता के आधार पर पितृ वर्ष में साढ़े दस महीने अपनी ऊर्जा द्वारा पुत्र-पौत्रों को शुभ-आशीष प्रदान करते हैं।
पुत्र पौत्रों द्वारा दिए गए जल व पिंडदान से उन्हें ऊर्जा मिलती है। जब पितरों के निमित्त जल व पिंड दान नहीं किया जाता है, तब पितृ क्लेश करते हैं। कर्तव्य स्वरूप स्वयं द्वारा पितरों के निमित्त श्राद्घ करने से वह सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। तृप्त होकर पितृ अपने वंशजों को आशीर्वाद, सुख-समृद्घि प्रदान करते हैं। (साई फीचर्स)

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